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जैन-कर्मसाहित्य का संक्षिप्त परिचय
भारतीय तत्त्वचितन की मुख्य तीन शाखाएं हैं-(१) वैदिक, (२) बौद्ध और (३) जैन । इन तीनों शाखाओं के बार मास में कर्मवाद के सम्बन्ध में विचार किया गया है। वैदिक एवं बौद्ध साहित्य में किया गया कर्म-सम्बन्धी किनार इसना अल्प है कि उनमें सिर्फ कर्म-विषयक विचार करने वाले कोई अलग ग्रन्थ नहीं है; यत्र-सन प्रासंगिक रूप में किचित विचार वय किया गया है। लेकिन इसके विपरीत अन बाझमय में में सम्बन्धी अनेक ग्रन्ध उपलध होते हैं. जिनमें कर्मवाद का क्रमबद्ध, विकासोन्मुखी, पूर्वापर श्रृंखला बस एवं सुशवस्थित अतिव्यापक रूप में विवेचम्म किया गया है । जन-सालबद्ध में कर्म-सम्पनी साहित्य का अपना एक महत्वपूर्ण स्थान है ओ कम प्रकृत अपया कमअन्य के रूप में प्रसिद्ध है। स्वतन्त्र कर्मग्रन्थों के अतिरिक्त आराम. तथा उत्तरप्रती आचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों में यत्र-तत्र कर्मविषयक जाएं देखने को मिलती हैं।
कर्मसाहित्य का मूल आधार जैन धाङमय में इस समय ओ भी कर्मशास्त्र का संकलन किया गया है, उसमें से प्राचीन माने जाने वाले कर्मविषयक ग्रन्थों का साक्षा सम्बन्ध श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही जैन परम्पराएं अग्रायणीय पूर्व से बतलाती है और अंग्रायणीय पूर्व को दृष्टिवाद मामक बारहवें अंग के अन्तर्गत चौदह पूर्षों में से दूसरा पूर्व कहती हैं। दोनों ही परम्पराएँ समान रूप से मानती हैं कि बारह अंग और चौदह पूर्व भगवान महावीर की विपद वाणी का साक्षात फल हैं । अलि वर्तमान में विद्धमान समय कर्मशास्त्र मन्दप से नहीं तो भावरूपं से भगवान महावीर के साक्षात् उपदेश का ही परम्परा में प्राप्त सार है । इसी प्रकार से एक दूसरी मान्यता भी है कि वस्तुतः समस्त अंगविद्यायें भावरूप से केवल भगवान महावीरकालीन ही नहीं, बल्कि पूर्व-पूर्व में हुए अन्य तीर्थङ्करों से भी पूर्वकाल की हैं, अतएव अनादि हैं, किन्तु प्रवाह