Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मागंणाओं में बन्यस्यामिस्त्र प्रदर्शक यंत्र
१६ यथाज्यातचारित्र में अन्तिम चार (उपशामतमोह, क्षीणमोह, पयोगि
केवली, अयोगिकेवली) गुणस्थान हैं। इन चार गुणस्थानों में से अयोगि:केवली गुमस्थान में बन्ध-कारण का अभाव होने से किसी प्रकृति का बन्छ नहीं होता है किन्तु शेष तीन गुणस्थानों में बाधिकार के अनुसार सामान्य व विष एक प्रकृति साता वेदनीय --का बन्न होता है ।
१७ उपशम सम्यकद्र चौधे से लेकर ग्यारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है । इस
सम्यक्त्व की यह विशेषता है कि आयुबन्ध नहीं होता है । चौथे गुणस्थान में मनुष्यायु और देवाथु का सथा पांचवें मावि में देवायु का बन्ध नहीं होने से चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य ७७ प्रकलियों में से उक्त दो वायु को कम करने से सामान्य की अपेक्षा ७५ पकुतियां बन्धयोग्य है। अत: पांच से सात मुणस्थान सक बन्धाधिकार में बताई गई बन्धसंस्था में से एकनाक प्रकृति को कम करने पर क्रमशः ६६, ६२.५८ प्रकृतियों का बन्ध होता है । इसके बाद आठवें से गारहवें गृणस्थान तक दधाधिकार के अनुसार बन्धस्वामित्व है।
१८ वेदक (सायोपमिक) में आप अपूर्वकरण गुणस्थान से उपशम या क्षपक
श्रेणी का क्रम प्रारम्भ हो जाने से चौथे अविरति से लेकर सातमें अप्रमशः विरत गुणस्थान तक बार गुणस्थान होते हैं । इसमें आहारकतिक का बन्ध सम्भव है, अतः चौथे गुणस्थान को बन्धप्ररेग्य ७७ प्रकृतियों के साथ बाहारकविक को जोड़ने से ७६ प्रतियई मामान्य को बन्धकोप हैं और मजस्थानों में बन्धस्वामित्व बन्धाधिकार में बताये गये अनुसार क्रमशः ७७ ६७, ६३, ५६।५८ प्रकृतियों का है ।
१६ दर्शनमोह के क्षय से अन्य भाषिक सम्यकस्व में चौथे से चौदह तक
ग्यारह गुणस्पान होते हैं। इसमें आहारफारिक का बन्ध सम्भव होने से सामान्यरूप में बन्धस्वामित्व ७९ प्रजातियों का है और स्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार में गुण स्थानों के क्रम में क्रमश: ७७, ६७, ६३. ५६:५४ आदि से १ प्रकृति पर्यन्त तेरहवें स्थापिथेकली गुणस्थान पर्यन्स
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