Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मग्रन्य परिशिष्ट
बन्ध समसना वाहिये । चौदहवां अयोगिकेवनी गुणस्थान बन्ध-कारण न
होने से अबाधक है। २० मिथ्यात्य, सामवादन और मिश्रष्टि ये सीम भी सम्यक्त्व मार्गणा के
अवान्तर भेद हैं। इनमें अपने अपने नाम वाला क्रमश: पहला, दूसरा, सीसरा, एक-एक गणस्थान होता है। तीर्थकरनाम और आहारकाद्विक----आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग-इन तीन प्रकातियों के बन्धयोग्य न होने से मिथ्यात्व में ११७, सासाधन में १.१ और मिश्रदृष्टि में ७४ प्रकृतियाँ
सामान्य से बन्धयोग्य हैं। २१ अभव्य जीवों के सिर्फ पहला मिथ्यात्व गुण स्थान होता है । मिध्याव के
कारण सम्यक्त्व और पारित्र की प्राप्ति में होने से तीर्थङ्कर और आहारकद्विक का बन्ध सम्भव नहीं है । इसलिये सामान्य और गुणस्थान की
अपेक्षा ११७ प्रकृतियाँ अन्धयोग्य हैं। २२ असंशी जोवों के पहला और दूसरा यह दो गुणस्थान होते हैं। इनके
सामान्य से और पहले गुणस्थान में तीर्थकर और आहारकटिक का बन्ध नहीं होने से ११७ प्रकतियों का तथा दुसरे गणस्थान में बन्धाधिकार के
कथनानुसार १०१ प्रकृतियों का खन्ध होता है। २३ आहारक मार्गणा में सभी मनोवृत संसारी जीवों का ग्रहण होने से
पहले मिथ्यात्व से लेकर तेरहवें सयोगिकेवली गुणस्थान तक तेरह मुणस्थान है। इसका नन्धस्वामित्व सामान्म से और गुणस्थानों की अपेक्षा प्रत्येक में पधाधिकार के कथनानुसार जानना चाहिये । अर्थात् सामान्य बन्नयोग्य १२० प्रकृतियाँ हैं और गुणस्थानों में ११७, १०१, ७४, ७७, ६७ आदि का कम सयोगिकेवली तक का समझना चाहिए।