Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मार्गेणाओं में मन्धस्वामित्व प्रदर्शक यन्त्र
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अनाहारक के दो अर्थ हैं १ - कर्मबन्ध के कारणों का पूर्णरूप से निरोध हो जाने से कर्मों का सर्वथा आहार-बहण न करना । यह अवस्था चौह अयोगिकेवली गुणस्थान में प्राप्त होती है, इसीलिये चौदहवाँ गुणस्थान अताहारक मार्गणा में माना जाता है। २ जिस स्थिति में सिर्फ फार्म काययोग की पुगलवर्गणा का ग्रहण होता हो उसे अनाहारक अवस्था कहते हैं। इस दृष्टि से संसारी जीव अब एक शरीर को छोड़कर भवान्तर- प्राप्ति लिये विग्रहगति द्वारा गमन करता है। उस स्थिति में कार्मण योग साथ रहता है, अन्य औवारिक काय आदि को प्राथ वर्मणायें नहीं रहती हैं। इन पास में स्थित जीवों के सिर्फ पहला दूसरा और चौथा यह तीन गुणस्थान होते हैं ।
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योगी सेवा गुणस्थान ) अनाहारक मार्गणा में इसलिये ग्रहण किया गया है कि आयु कर्म के परमाणुओं से अन्य कर्मों की स्थिति अधिक हो तो उनको आयुकर्म की स्थिति के बराबर करने के लिये सात क्रिया करते हैं। इस समुद्धात स्थिति में सिर्फ कार्मण योग रहता है और afte स्थिति वाले कमों को वो द्वारा कर्म की स्थिति के बराबर कर लिया जाता है। यह सात सयोगकेवली द्वारा होता है, इसीलिये तेरहवाँ गुणस्थान अनाहारक मार्गणा में Her गया और वह सिर्फ सावा नीय कर्म का बध होता है ।
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