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मार्गमाओं में निमित्व समय:
गोम्टसार कर्मकांड में भी चौथे गुणस्थान में ७०,७१ प्रकृत्तियाँ बंधयोग्य मानी हैं। ___ इसका समाधान यह है कि गाथा १५ में अस्गत 'अनजदीसाई' पद का अर्थ सिर्फ अनन्नानुनन्धीचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियां न करके 'आई' शब्द से मनुष्यतिका आदि पनि प्रकृतियों को ग्रहद कर लिया जाये तो शंका को कोई स्थान नहीं रहता है । उस स्थिति में ७० और ७१ प्रकृतियों को पाय गुणस्थान में बन्धयोग्य माना जा सकता है।
इस प्रकार का समाधान कर लेने पर भी कर्मग्रन्थ में ७५ प्रकृतियों के बन्ध को मानने का कारण क्या है, यह जिज्ञासा जनी रहती है। अतः विचारणीय है ।
औदारिफमिन काययोग में सिद्धान्त के मतानुसार पांचवो, छठा यह दो गुणस्थान माने जाते हैं । इस सम्बन्ध में सिक्षान्त का अभिप्राय यह है कि जैसे औदारिक कापयोग की शरीरपर्याप्त पूर्ण नहीं होने के समय तक कार्मणकाययोग के साथ मिथता होने से औदारिक काययोग को ओवारिफ मिथकाययोग कहा जाता है, वैसे ही लश्चितन्य वक्रिय ओर आहारक शरीर का इनके प्रारम्भ काल में ओदारिया शरीर के साथ मिश्रण होने के समय अद तक बैंक्रिय या आहारक शरीर में शरीरप्ति पूर्ण न हो तब तक के लिये औदारिक मिश्रकाययोग माना जाना चाहिए ।
सिवान्त का जन्त दृष्टिकोण ग्राह्य है और उस दृष्टि से औदारिकमिश्र काययोग में पांचों, छठा गुणस्थान माने जा सकते हैं । लेकिन कर्मग्रन्थों में लब्धिअभ्य शरीर को प्रधानता न मानकर बैंक्रिय और आहारक शरीर को औदारिकमिश्र काययोग नहीं माना है। सिर्फ कार्मण और औदारिक पारीर दोनों के सहयोग से होने वाले योग को औदारिकमिश्र काययोग काहना चाहिए और यह योग पहले, दूसरे, चौपे तथा सेरहवें गुणस्थान में पाया जाता है।
इसलिये इन चार गुणस्थानों में बन्धस्वामित्व का कथन किया है।