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गु०० बन्ध योग्य
४
सामान्य बन्धयोग्य १२४
आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, देवायु, नरकगति, नरकानुपूर्वी, नर कायु विहीन ११४
१०६
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७५
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१
औदारिकमिष काययोग का स्वामित्व
अबन्ध
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तीर्थंकर नाम
देवकि
विकिि
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गुणस्पाम १, २, ४, १३ (वार गुणस्थान)
पुनः
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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
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५.
तीर्थंकर नाम देवत्रिक
वैि
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बन्ध विद
सूक्ष्मनाम ( १२ ) से सेवाल सन (२४) तक १३, तथा मनुष्यायु विचायु १५
१३
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विशेष- जिज्ञासु मे यहाँ शंका की हैं कि दारिक मिश्र काययोग तिच और मनुष्य को होता है और तियंत्र व मनुष्यगति के बन्धस्वामित्व में चौथे गुणस्थान में क्रमशः ७० और ७१ प्रकृतियों का बन्ध कहा है और यहाँ औदारिकमिश्र काययोग मे ७५ प्रकृतियों का । इन ७५ प्रकृतियों में मनुष्यद्विक, औदारिकद्विक और वऋषभारात्र संहनन का समावेश है। इनका तियंचगति और मनुष्यगति के चौथे गुणस्थान की बन्धयोग्य प्रकृक्तियों में समावेश नहीं होता है अतः ७५ प्रकृतियों का बन्धस्वामित्व मानना युक्ति-पुरस्सर नहीं है ।
अनन्तान • क्रोध (२५) से तिर्यचानुपूर्वी (४८) तक = २४