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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
आहारक एवं आहारकमिव काययोग का बन्ध-स्वामित्व
कर्मग्रन्थ के मतानुसार आहारक और आहारकमिश्र काययोग का बन्ध स्वामित्व सामान्य से और गुणस्थान की अपेक्षा बन्धाधिकार में बताये गये छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान के जैसा ६३ प्रकृतियों का है और गुणस्थान छठा बतलाया है ।
लेकिन पंचसंग्रह सप्ततिका का मत है कि आहारक काययोग में छठा और सातवां यह दो गुणस्थान हैं तथा बहारकमिश्र काययोग में सिर्फ छठा गुणस्थान है। तव आहारक काययोग का बन्ध गुणस्थान में ६३ व सातवें गुणस्थान में ५७ और देवायु का बन्ध न हो तो ६६ प्रकृतियों का माना जाना चाहिए ।
उक्त मन्तव्य का आधार यह है कि आहारक शरीर का बन्धयोग्य गुण स्थान सातवां है और उदयोग्य छठा । जब चौदह पूर्वधारी आहारक शरीर करता है, उस समय लब्धि का उपयोग करने से प्रमादयुक्त होने से छटा गुथस्थान होता है और आहारक शरीर का प्रारम्भ करते समय वह बोदारिक के साथ मिश्र होता है, यानी आहारक और आहारकमिश्र काययोग में छठा गुणस्थान होता है किन्तु बाद में विशुद्धि की शक्ति से सातवें गुणस्थान में आला है तब आहारक योग ही रहता है और गुणस्थान सातवाँ ।
इस efsc से आहारक काययोग में छठा और सातवाँ तथा आहारकमिश्र काययोग में छा गुणस्थान माना जाना चाहिये और सब आहारक काययोग में ६३ और १७ तथा आहारकमिश्र काययोग में ६३ प्रकृतियाँ योग्य होंगी ।
गोम्मटसर कर्मकांड में बहारक काययोग में ६३ प्रकृतियाँ और आहा cafer काययोग में देवायु का बन्धन मानने से ६२ प्रकुतियाँ बन्धयोग्य मानी हैं। देवासु के बन्धन मानने का कारण यह नियम है कि मिश्र अवस्था में आयु का बन्ध नहीं होता है ।