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तृतीय कर्म ग्रन्य : परिष्ट
अनन्तानुबन्धीचतुक को अप्रत्याख्यानादि बारह कवाय रूप परिणमन करा देता है तथा अनिवृतिकरण काल के बहभाग को छोड़कर शेष संपातवें एक भाग में पहले समय से लेकर क्रम से मिथ्यात्व, मिश्च और सम्यक्त्य प्रकृति का भय करते हैं। इस प्रकार सात प्रकृतियों के क्षय का कम है। यहाँ पर तीन गुणस्थानों का प्रकृतिसपर हो: ही गाय तथा असं इस से लेकर सातवें गूणस्थान तक उपशमसम्यहरिद तथा क्षयोपशमसम्पादृष्टि इन दोनों के चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी आदि की उपशमा सत्ता होने से १४८ प्रकृतियों का सत्व है। पांचवें गुणस्थान में नरकाय न होने से १४१ का, प्रमत गणस्थान में नरक तथा तियवायु इन दोनों का सस्छ न होने से १४६ सश्वा अप्रमत्त में भी १४६ का समय है और क्षायिक सम्यग्दृष्टि के अनन्तानुबन्धीयतुष्क और दर्शनमोहविक इन सात प्रकृतियों के क्षय होने से सात-सात कम समझना । अपूर्वकरण गुणस्थान में दो श्रेणी हैं, उनमें से अपक श्रेणी में तो १३. प्रकृतियों का सत्त्व है क्योंकि अनन्तानुबन्धी 'दि ७ प्रकृत्तियों का तो पहले ही क्षय किया था और मरक, लियंच तथा वायु इन तीनों की सत्ता ही नहीं है।
सोलक्किमिकरक चद् सेक्क बादरे अदो एक्कं । खीणे सोलमजोगे बायत्तरि तेरुवर्तते ॥३३७।।
अनियत्तिकरण में ऋम से १६, ८, १, १, ६ प्रकासिय सत्ता से ब्यूमिछम होती हैं तथा अंतिम भाग में एक की ही सनाव्युजिछन्न होती है । दसवें गुणस्पान में एक की ही न्युचित है । ग्यारहवें में योग्यता ही नहीं है। बारहने के अन्तसमर में १६ प्रकृत्तियों की सस्यच्छिति होती है । सयोगिकेवली में किसी भी प्रकृति की ब्युछित्ति नहीं है । अयोगि गुणस्थान के अंत के दो समयों में से पहले समय में ७२ को तथा दूसरे समय में १३ प्रकृतियाँ थुम्मिन्न होती हैं।
गुणस्थानों में सत्य और असत्य प्रकृतियों की संख्या का क्रम इस प्रकार
णमतिगिणभइगि दोदो दस दस सोलगादिहीणेसु । .. सत्ता हवंति एवं असहाय परक्कमुद्दिवें ॥३४२।।
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