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सन्धारि स्वामिष : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य
१५५ समझना । इन्द्रिय और काय मार्गणा में प्रकृतियों की उद्देसमा' भी होती है। योगमार्गमा
पुण्णेकारसजोगे साहारयमिस्सगेवि सगुणोघं ।
वैगुब्धियमिस्से वि य भावरि ण माणुसतिरिक्खाऊ ५३५२।। मनोयोग आदि ११ पूर्ण योगों में और आहारकमिश्र योग में अपने-अपने गुणस्थानों की तरह सत्त्व प्रकृतियां जानना । वैश्यिमिय योग में भी शुण्डस्थानवत् ही ससा जानवा, किन्तु यह विशेषता है कि यहाँ पर मनुष्यायु और तिर्यचाय.....इन दो की सत्ता नहीं है, अतः १४६ सप्सायोग्य प्रकृसिया है।
ओरालमिस्स जोगे ओघ सुरणिरयाउन पत्य ।
तम्स्सिवामगे सिर कम्मवि सगुभो ॥३५३।। औदारिकमिश्ध योग में सामान्य गुणस्थानवत् सत्ता है, किन्तु देवायु और नरकायु दो प्रकृतियां न होने से १४३ प्रकृतियो ससायोग्य हैं । औदारिकमिश्र मिथ्याइष्टि के सीपंकर प्रकृति नहीं है, अतः पहले गुणस्थान में १४३ फा सस्प है । फार्मणकावयोग में गुणस्थानवत् १४८ प्रकृतियों की ससा समाना साहिए। धेव से आहार मागंणा पर्यग्स
वेदादाहारोति य समुणोध गरि संढयीखवगे । किण्हगसुहतिलेस्सियबामेवि ग तित्थयरससं १३५४।। अभवसिद्धे गस्थि ह सत्तं तित्थयरसम्ममिस्साणं । आहारचउक्कस्सवि असण्णिाजीवे ण तिल्पयरं ।।३५५।।
कम्मेवाणाहारे पयडीण सत्तभेवमादेसे ६ १ जिस प्रकृति का बन्ध किया था उसका परिणामविशेष से अन्य प्रकृति
रूप परिणमन करके नाम कर देमा अर्थात् फल उदय में नहीं माने दिमा, पहले नाश कर दिया, उसे उद्वेलन कहते हैं । उद्देलनयोग्य प्रजातियाँ १३ हैं- आहारकद्रिक, सम्यक्रम मोहमीय, मिश्रमोहनीम, देवपतिरिक, नरकति आदि पार, उच्च मोत्र, मनुष्यगतितिक ।
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