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पेसाम्बर-दिगम्बर कर्मसाहित्य के समान-असमान मम्सम्य
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कोई अन्तर नहीं है। दोनों का आशय यह है कि लेजस् ६ वायुकायिक में हीन्द्रिय भादि की तरह असनाम कर्मोदय नहीं है, लेकिन गमन किया रूप सक्तिः होने से वसत्व माना है । द्वीन्द्रियादि में उसनाम फर्मोदय व गमन क्रिया रूप धोनों प्रकार का बसत्य है।
लेकिन दिगम्बर साहित्य में तेजाकायिक, वायुयायिक जीवों को स्थावर ही कहा है, अपेक्षाविशेष से उनको प्रसनहीं कहा है।
(११) पंचसंग्रह (श्री चन्द्रषि महतर रचित) में औदारिकांमध काययोग में कर्मग्रन्थ के समान तिघायु और मनुष्यायु के मन को माना है ।
(१२) कर्मग्रन्थ में आहारक काम में १३ प्रतियों मा बनध कहा है। लेकिन इस विषय में पंचसंग्रहकार का मत भिन्न है । ये आहारक कायपोग में ५७ प्रकृतियों का बन्ध मानते हैं । __ आशा है उक्त मतभिवताएँ जिज्ञासुओं को तलस्पशी अध्ययन में सहायक बनेगी 1 .
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