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दसौर कराया । विशिष्ट
प्रकृतियों के बन्ध विषयक दवे के मत की पुष्टि गो० कर्मकाण्ड से भी होती है।
(७) कर्मग्रन्थ में आहारकमिश्न काययोग में ६३ प्रकृतियों का बन्ध माना है, किन्तु गो० कर्मकाण्ड में ६२ प्रकृतियों का रन्ध माना गया है ।
(4) कृष्णा आदि तीन लेश्याओं में कर्मग्रन्थ और गो कर्मकाण्ड में ७५ प्रकुतियों और संवान्तिक पस ने ७५ प्रकृतियों का बन्ध माना है।
कर्मग्रन्थ गो कर्मकाण्ड में शुस्ललेश्या का बन्धस्वामित्व समान है।
तीसरे कर्मग्रन्थ में कृष्ण आदि तीन लेश्याएँ पहले चार गुणस्थानों में मानी है। इसी प्रकार का गोम्मटसार और सर्वार्थसिद्धि का भी मत है ।
(8) क्वेताम्बर सम्प्रदाय में १२ देवलोक माने हैं (सस्वाय. अ. ४, सू० २० का भाष्य) परन्तु बिगम्बर सम्प्रदाय में १६ (तस्वार्थ ०७४, सू० १८ की सर्वार्थसिद्धि टीका) । श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुसार सनत्कुमार से सहस्रार पर्यन्त छह देवलोक है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार १० । इनमें से अमोत्तर, कापिष्ठ, शुक्र, शतार ये चार देवलोक हैं, जो श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महीं माने हैं।
स्वेताम्बर सम्प्रदाय में तीसरे सनस्फुमार से लेकर पांचवें ब्रह्मलोक पर्यन्त केवल पदमलेण्या तथा छठे लान्तक से लेकर ऊपर के सब देवलोकों में शुक्ल लेण्या मानी है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में सनत्कुमार, माहेन्द्र दो देवलोको में तेजीलेश्या व पद्मलेश्या; ब्रह्मलोक, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ इन चार देवलोकों में पद्मलेण्या; शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रारइन चार' देवलोकों में पदम शुक्ल ले गया तथा आनत आदिघोष सब देवलोकों में बस शुक्ललेण्या मानी है।
(१०) श्वेताम्बर, दिसम्बर दोनों सम्प्रदायों में तेजस्व वायुकायिफ जीव स्थावर नामकर्म के उदय के कारण स्थावर माने गये हैं, तथापि श्वेताम्बर साहित्य में अपेक्षा विशेष के उनको प्रस भी कहा है। तत्त्वार्थभाव्य दीका आदि में तेजःकायिक, बायकामिक को 'गतिनस' और आचारांगनिथुक्ति और उसकी टीका में ... सन्धि अस' कहा है, लेकिन इन दोनों माम्बों के तात्पर्य में