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बम्बारि स्वामित्व : दिगम्बर कर्मसाहित्य का भतथ्य
मिध्यादृष्टि आदि अपूर्वकरण गुणस्थान तक अम से शून्य (०), ३१, शुन्य (०) १, २२. १० इतनी प्रकृतियों का aere areat अर्थात् ये प्रकृतियाँ नहीं रहती हैं और अतिवृतिकरण के पहले भाग में १०, दूसरे में १६, तीसरे आदि भाग में जादि प्रकृतियों असत्य जानना और इन असत्त्व प्रकृतियों को सब सस्त्र प्रकृतियों में घटाने से अवशेष प्रकृतियाँ अपने-अपने गुणस्थानों में सत्त्व प्रकृतियाँ हैं । ( ऐसा सहायता रहित पराक्रम के धारक श्री महावीर स्वामी ने कहा है ।)
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are furt में भी क्षपणा के विधान की तरह क्रम जानना चाहिए, किन्तु यह विशेष है कि संज्वलनकषाय और पुरुषवेद के मध्य में अपनावरण और प्रत्यात्मानावरण कषाय सम्बन्धी दो-दो क्रोधादि है, सो पहले उनको कम से उपaner करता है, पीछे संज्वलन कोषादि का उपशम करता है। अर्थात् अपक श्रेणी की तरह उपशम श्रेणी में नौवें गुणस्थान के दूसरे भाग में मध्यम आठ कषायों का उपशम नहीं होता है किन्तु पुरुषवेद के और पंज्वलन के पहले होता है और उसका क्रम ऐसा है कि पुरुषदेव के बाद rveersire और प्रत्याख्यान दोनों के कोन का उपशम तत्पश्चात् संख्यम को का उपशम इत्यादि । मान आदि में भी ऐसा ही कम जानना चाहिए । तिरिए ण तित्यसत्तं णिरयादिसु तिय चक्क च तिष्ण । आऊणि होति सत्ता मे ओघादु जाज्जो ॥ ३४४॥ ||
तिर्यगति में तीर प्रकृति की सत्ता नहीं है तथा तरक, तियंत्र, मनुष्य तथा देवगति में क्रम से भुज्यमान नरकायें और बध्यमान वि मनुष्यायु-इन तीन आयुओं की भुज्यमान तिर्यवायु और बध्यमान-नरक, तिर्यच मनुष्य, देवावु इन चार को भुज्यमान मनुष्यायु और वध्यमान नरक, तिच मनुष्य व देवायु इन चार की भुज्यमान देवायु और वध्यमान नियंत्र व मनुष्यायु इन तीन आयु कर्मों की सत्ता रहने योग्य है तथा शेष प्रकृतियों की सत्ता गुणस्थान की सरह समझना चाहिए । परिमाणा
ओघ वा रइये ण सुराऊ तित्यमत्थि तदियो त्ति । छट्ठित्ति मगुस्साऊ तिरिए बोध ण तित्यपरं ॥३४६||