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aarfe office : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य
१५.१
भेदों को लिये हुए प्रकृतियों के सच का यथायोग्य क्रम से कथन किया जा रहा है। सत्व को बतलाने के लिए सर्वप्रथम परिभाषा सूत्र कहते हैं
तित्थाहारा जुगयं सव्वं तित्यं ण मिच्छ्गादितिए । तस्तम्मियाणं वग्गुणठाणं ण संभवदि |||३३३ ॥
मिथ्यादृष्टि सासादन, मिश्र इन तीनों गुणस्थानों में क्रम से पहले में तीर्थंकर और आहारकद्विक एक काल में नहीं होते, तथा दूसरे में तीनों ही किसी काल में नहीं होते और मिश्र में तोकर प्रकृति नहीं होती । अर्थात् मिथ्यात्व में नाना जीवों की अपेक्षा १४८ प्रकृतियों की सत्ता है, सासादन में तीनों ही के किसी काल में न होने से १४५ की ससा है और मिश्र गुणस्थान में तीर्थंकर प्रकृति के न होने से १४० प्रकृतियों की सत्ता है। क्योंकि इन स्व प्रकृतियों वाले जीवों के ये मिध्यात्वादि गुणस्थान हो संभव नहीं हैं।
चत्तारिवि खेत्ताइ आउगबन्धेण होइ सम्मतं ।
अणुवद महदाई ग लहइ देवाउगं मोतु ॥ ३३४ ॥
नारों ही गतियों में किसी भी काम होने पर सम्यगस्थ होता है, परन्तु देवायु के अन्ध के सिवाय अन्य तीन मासु के बन्ध वाला अणुव्रत तथा महाव्रत धारण नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ त के कारणभूत विशुद्ध परिणाम नहीं हैं।
गिरयतिरिक्त सुराउन सत्ते न हि देससयलचदखवगा । अयदचक्कं तु अण अणियट्टीकरण श्ररिमम्हि ॥ ३३५॥ जुगवं संजोगिया पुणोत्रि अणियट्टिकरण बहुभाग । atra seat fee मिस्से सम्म खवेदिकमे ||३३६||
नरक, तिर्यच तथा देश के सत्व होने पर कम से देवव्रत, सत
( महात्रत) और क्षक श्रेणी नहीं होती और असंयतादि चार गुणस्थान वाले बन्धी आदि सात प्रकृतियों का क्रम से य करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते हैं । उन सातों में से पहले अनन्तानुबन्धीतुक का अनिवृतिकरण रूप परिणामों के अंत काल के अन्त समय में एक ही बार दिसंयोजन अर्थात्