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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट देशसंयत नामक यांचवं गुणस्थान में शायिक सम्यग्दृष्टि मनुष्य ही होता है, इसलिए लियंकायु, उद्योत, तिर्यगति इन तीन प्रकृतियों का उदय नहीं है, अत: इन तीन की उदयव्युछित्ति अविरल गुणस्थान में हो आती है ।
मेसाणं सगुणोष सणिस्सवि त्यि तावसाहरण । थावरसुहमिगिविगलं असणिणोदि य ग मणुदुच्च ।।३३०।।
वेगुब्बछ पणसंहदिसंठाण सुगमण सुभगाउतिर्थ । शेष मिथ्यास्त्र , सासादन, मिश्र सम्यक्त्व, इन तीनों में अपने-अपने गुणस्थान की तरह उत्यादि जानना । अर्थात मिस्यात्व में ११७ प्रमातियाँ उदययोग्य है इत्यादि ।
संकी मार्गणा में संशी के भी सामान्य १२२ में से आतप, साधारण, स्थानर, सूक्ष्म, एकेन्दिर, विकलेन्द्रियधिक और पूर्वोक्त तीर्थङ्कर प्रकुप्ति कुल ६ प्रकलियाँ उदययोग्य नहीं हैं । अमांजी के मनुष्यगलिविका, उन गोत्र, वक्रिय शरीर
आदि षट्क, आदि के पांच संहनन, आदि के पांच संस्थान, प्रशस्त विहरयोगक्ति, सुभगादि तीन, मरमादि सीन आयु..ये २६ प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं हैं। असः मिश्थाष्टि की ११७ में से २६ प्रकृतियाँ घटाने पर ६१ प्रतिया जदययोग्य हैं। आहारमाया
आहारे सगुणो णवरिण मन्त्राणुपुब्बीको ॥३३॥
कम्मे व अणाहारे, पयडीण उदयमेवमादेसे ॥३३२॥ সাল্লামা সাকি সবকথা # মাদাখ মুখাসন সুবি समझाना, परम्न चारों आनुषी प्रकृतियों का उपय नहीं होता है । अत: जदययोग्य ११८ प्रकृतियां है।
अनाडारक अवस्था में काम काययोग की तरह ६६ प्रकृतिमा उदययोग्य हैं।
सत्तास्वामित्व पति आदि मार्गणाओं में प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन चार