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तृतीय फर्मग्रन्थ : परिशिष्ट एवं माणादितिए मदिसुद अण्णाणगे दु सगुणोपं । वेभगेवि ण तादिगिविगलिंदी थावराणुचक ।।३२३।। सण्णाणपंधयादी सणमग्गाणपदोत्ति सगुणोध । मणपज्जव परिहारे णवरि ण संदिस्थि हारदुर्ग ।।३२४३
चक्खुम्मि ण साहारणताविगिबितिजाइ थावर सुहम । क्रोध कषाय मागंणा में सामान्य १२२ प्रकृतियों में से तार्थङ्कर तथा मान, माया, लोभश्चतुष्क सम्बन्धी १२ कषामों - इन १३ प्रकृसियों को कम करने से १०६ प्रकृतियाँ उदययोग्य है तथा अनन्तानुबन्धीरहित भोध में एकेन्द्रिय, विकलनिक, आतप, अनन्तानुबन्धी क्रोध, चार आनुपूर्वी, स्थावर आदि चार, इस प्रकार १०६ में से १४ प्रकृतियां तथा अनन्तानुबन्धी मान आदि तीन व मिथ्यास्त्र ये कार कुल १८ प्रकृत्तियों को छोड़कर उदययोग्य ६१ प्रकृतियाँ हैं ।
इसी प्रकार मान आदि सीन कषायों में भी अपने से अन्य १२ कषाय तथा तीर्थ र प्रकृति छन १३ प्रतियों के न होने से १०६ प्रकुतियां उत्ययोग्य समाना। ___ ज्ञान मागंणा में कुमति और कुवत ज्ञान में सामान्य गुणस्थानबत् १२२ में से पाहारक आदि ५ के सिवाय ११७ प्रकृतियाँ उदयोग्य हैं। विभंग (कुअवधि) शान में भी उक्त ११७ प्रकृतियो में से आसप, एकेन्द्रिय, विकालेन्द्रिय त्रय, स्थावर आदि चार, आनुपूर्थी भार, कुल मिलाकर १३ प्रतियां उदय न होने के कारण १०४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
पांच सम्यग्ज्ञान से लेकर दर्शन मार्गणास्थान पर्यन्त अपने-अपने गुणस्थान सरीखी उदययोग्य प्रकृतियाँ हैं, लेकिन मनःपावसान के विषय में यह विशेष जानने मोम्म है कि नपुसकवेद, स्त्रीवेद, आहारक युगल में चार प्रकृतियाँ उदययोग्य नहीं हैं।
दर्शन मार्गणा के चक्षुदर्शन में १२२ में से साधारण, अतिप, एकेन्द्रिय, वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय जाति, स्थावर, सूक्ष्म, तीर्थकर ...इन आठ प्रकृतियों का उदय न होने के कारण ११४ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं ।