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सूतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
वैक्रिय काययोग में देवगति के समान ७७ प्रकृतियों में से देवासपूर्वी को कम करने और नरकायु, नरकगति, हुंड संस्थान, नपुसकवेद, अशुभ विहायोगति, दुर्भग आदि चार, नीच गोय. इन दस प्रकृतियों को मिलाने से ८६ प्रकृतियों उदययोग्य हैं।
वेगुब्वं वा मिस्से | मिस्स परधादसरविहायदुर्ग । साणे ण हुडसंह दुब्भगणादेज्ज अजसयं ॥३१५|| पिरमादिआखणीच ते खिसयदेवणिज्ज थीवेद । छट्ठगुणं वाहारेण थीणतियसबथीदं 1३१६|| दुग्गदिदुस्सरसंहदि ओरालदु चरिमपंचसंहाणं ।
ते तम्मिस्से सुस्सर परधाददुसत्थयादि होणा ॥३१.७।। वैक्रियमिश्न काययोग में बैंक्रिय की ८६ प्रकृत्तियों में से मिनमोहनीय, पराधात--स्वर-विहायोगति- इन तीन का युगल उबयरूप नहीं है, अर्थात ये सात प्रकृतियाँ उदय योग्य न होने से ७६ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं। इनमें भी सास्वादन गुणस्थान में हु संस्थान, नपुसकवेद, दुर्भग, अनादेय, अयश.कीर्ति मरक्कमति, परकायु, नीघगोत्र का उदय नहीं है, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान बाला मरकर नरक को नहीं आता, किन्तु अविरत गुणस्थान में इनका उदय रहता है । सास्वादन में स्त्रीवेद और अनन्तानुबन्धीचतुवा इन पांच एकत्तियों की व्युच्छित्ति है । अधिरति में अप्रत्याख्यानकषायचतुक, क्रियतिक, देवगति, मरकगति, देवायु, नरवायु और दुर्भगत्रिक इन तेरह प्रकृतियों की थ्युच्छिति होती है । आहारक काययोग में छठे गुणस्थान की ८१ प्रकृतियों में से प्रत्याद्धित्रिक, मसकवेद, स्त्रीवेद, अप्रशस्तविहायोगति, दुःरकर, छह संहनन, औदारिकविक, अंत के पांच संस्थान . न २० प्रकृतियों का उक्ष्य नहीं है । आहारकमिश्न काययोग में इन ६१ प्रतियों में से मुस्वर, पराधातादि दो, प्रशस्तविहायोगति इन चार को कम करने से ५७ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
ओघ कम्मे सरगदिपत्त याहारुरालदुग मिस्स । उवघादपणविगुल्धदुधीणतिसंठाणसंहदी पास्थि ॥३१॥