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PAMMAMAALIM
मग्धावि स्वामित्व : दिगम्बर कमसाहित्य का मन्तव्य
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दो, साधारण, एकेन्द्रिय, आतपय पात्र प्रकृतिमा म होने से ५१७ प्रतियां उदय होने योग्य हैं।
चार मनोयोग तथा तीन वचनयोग कुल सात योगों में आतए, केन्द्रिय, विकलत्रय, स्थावर आदि कार, चार आनुपूर्वी-ये १३ प्रकृतियां नहीं होती हैं, लतः १०१ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
अणुभयवचि वियलजुदा ओघमुराले पहार देवाल।
वेगुष्यछक्कणरतिरियाणु अपज्जत्तणिरयाऊ ॥३११ अनुभय बचनयोग में १०६ प्रकृतियों में बिकलत्रय मिलाकर ११३ प्रा. तियाँ उदयोग्य है।
औदारिक काययोग में ११२ में से आहारक शरीर युगल, देशयु, क्रिमषट्क, मनुष्यानुपूर्वी, लियंचानुपूर्वी, अपर्याप्त. नरकासु-इन १३ प्रकृतियों के न होने से १०६ प्रकृतियाँ उदययोग्य है ।
तम्मिम्मे पुण्णजुदा या मिस्सीणतियसरविहाय दुगं । परघादचओ अयदे णादेजदुदुभगं छा संहिती ॥३१॥ साणे तेसि छेदो वामे चत्तारि चोदसा साणे । चदाल वोछेदो अयदे जोगिम्हि छत्तीसं १३१३
औदारिकमिश्र काप्रयोग में पूर्व की १०१ प्रकृतियों में पर्याप्त के मिलाने तथा मिन्धप्रकृति, त्यानमिश्कि, स्वरदय, बिहायोगलियुगद, पराधातादि चारइन बारह प्रकृतियों के न होने से ६८ प्रकृतियां उदयोग्य हैं ! चौथ अविरत गुणस्थान में अनादेय युगल, दुर्भग, नए सकवेद, स्त्रीवेद इनका उदय नहीं है, इन प्रकृतियों की व्युच्छित्ति सास्वादन गुणस्थान में ही बानना साहिए । इसके मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यास्थ, सूक्ष्मन्त्रय ये पार प्रकृतियाँ व्युछिन्न होती हैं । सास्वादन में अनन्तानुबन्धी आदि १४, असंयत में अप्रत्याख्यानादि ४४ तथा समोगिकेवरली में ३६ प्रकृतियों का उदय विच्छेद जानना
देवोषं गुध्धे ण सुराण पक्लिवेज्ज णिरयाऊ ! निरयगदि उसद दुग्गदि दुरुभगवओ णीचं ॥३१४॥