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धादि स्वामित्व : विगाधर कर्मसाहित्य का मसम्म
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तिचों में मनुष्यों की तरह ७१ प्रकृतियों में मनुष्यक्ति आदि दो, उभागोत्र और मनुष्यायु इन पार प्रकृतियों को कम करने तथा नीचकोत्र, तिषगति आधि दो, तिचायु और उद्योत इन पांच को मिलाने से ७६ प्रकृतियाँ उदययोग्य हैं।
भोग व सुरे परचवणराउणज्जूण सुरवसुरा। खिव देवे वित्थी इथिम्मि ण पुरिसवेदो य॥३०४| सामान्य से देवी में भी भोगभूभिक मनुष्य की तरह ७८ प्रकृतियों में मनुष्यगति आदि चार, मनुष्यायु, ऋषभनास संहनन' इन छह प्रकृतियों को कम कर और देवगति आदि चार, देवापु इन पाँध को मिलाने से ७७ प्रकृतियां उदयनीय है। परन्तु देवों में स्त्रीवेद का उदय और देवांगनाओं में पुरुषवेद का उपम नहीं होता है । अतः देव और देवांगनाओं में ७६ प्रतियाँ ही अश्ययोग्य समझना चाहिए।
अविरदठाणं एक अदिसादिसु सुरोधमेव हवे ।
भवणतिकप्पित्थीणं असंजदे अस्थि देवाणू ॥३०॥ अनुइिंश कादि विमानों में एक असंयत गुणस्थान ही है । अत: देशों के अविरत सुणस्थान की सरह उपमयोग्य ५० प्रकृतियाँ जानना । भवनत्रिक (भवनकासी, ध्यंतर, ज्योतिषी) देव, देवियों तथा कल्पवामिनी स्त्रियों के सामान्य देवों की तरह ७७ प्रकृतियों में स्त्रीवेद अथवा पुरुषवेध के बिना ४६ प्रकृतियाँ उदधयोग्य हैं, किन्तु चौधे अचिरस गुणस्थान में देवानुपूर्वी का उदय नहीं है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि मरण करके भवत्रिक में उत्पन्न नहीं होता। अर्थात् भवनन्त्रिक व कल्पवासिनी देवियों के चलु गुणस्थान में व सासरे में भी उदययोग्य ६६ प्रकृतियां ही हैं। नियमार्गमा
तिरियअपुण्णं वगे परषादवउपकपुष्णसाहरणं । एइन्दियजसपीणतिषावरजुगलं च मिलिदब्वं ॥३०॥