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बन्धादि स्वामित्व : विगम्वर कर्म साहित्य का मन्तव्य
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इनका खतुष्कः, इस प्रकार कुल मिलाकर ये २६ प्रकृतियो मारक भावों के वचनपर्यास्त के स्थान पर उदय रूप होती है।
मिछमणतं मिस्सं मिच्छादितिए कमा छिदी अयदे ।
विदियकसाया दुभगणादेज्जदुगाउणिरयचाउ ३३२६२।। प्रथम नरक के मियादृष्टि आदि तीन, शुषस्थानों में भ से मिथ्यात्व अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यग्मिथ्यात्व यह उदयविच्छिन्न होते हैं और चौथे सुणस्थान में अप्रत्यारूपानावरणचतुका, दुर्भग, स्वर, अनादेय, अयान कोति नरकायु, नरकद्विक, वैकिय शरीर, वैक्रिय अंगोपांग -.... यह १६ प्रतियां उदयविधि होती हैं।
बिदियाविसु छसु पुढविमु एवं गरि य असंजदट्ठाणे । पास्थि णिरयाणपन्थी तिस्से मिच्छेब बोच्छदों ॥२
दूसरे से लेकर सातवें भरक तक पहले नरक के सामान उदयादि मानना, किन्तु इतनी विशेषता है कि असंयत गुणस्थान में नरकानुपूर्वी का उदय नहीं है । इस कारण मिथ्यात्व गुणस्थान में ही स्वास्न प्रकृति के साथ नरकानु. पूर्वी का भी उपयथिच्छेद हो जाता है।
तिरिथे ओधो सुरणरणिरयाऊनच्छ महारदुर्ग 1
वेगुन्वछक्कलित्थं पथि हु एमेव सामग्णं ॥२६४॥ तिधति में गुणस्थान ने समान ही उदय जानना । गरन्तु उनमें से देवायु, मनुष्यायु, नरकायु, उच्चगोत्र. मनुष्मतिनिक, आहारकाद्धिक सथा बैंक्रिय भरीर आदि ६, तथा लीर्थकर ये सब १५ प्रति उदययोग्य नहीं हैं। इस कारण १०५ प्रकृतियों का ही उदय हना करता है। इसी प्रकार तिथंच के पाँच भेदों के सामान्य तियानों में भी जानना ।
थावरदुगसाहारणताविगिविगलुग ताणि पंचक्खे । इत्थिअपज्जत णा ते पुण्णे उदयपयडीओ ||२६|| उक्त सामान्य तिमंच की १०७ प्रकृतियों में से स्थावर आधि २, साधारथा, आतप, एकेन्द्रिय, विकलत्रय----इन आठ प्रकृतियों को घटा देने वर शेष बची