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तृतोप कर्मबन्ध : परिशिष्ट
एफेन्द्रिय तथा दीन्द्रिय आदि विकलत्रय और स्थावर आदि चार प्रकृतियों का उदय रिंगमंच के होवे योग्य है । अपर्याप्त प्रकृति तिर्यच व मनुष्य के भी उदय होने योग्य है । वजऋषभनाराच आदि छह संहनन और औदारिक पारीर युगल नामकर्म (औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग) मनुष्य ब तियंप के उदय होने योग्य है । क्रिय शरीर व बकिय अंगोपांग ये दो प्रकतियां देव नारकों के उदययोग्य हैं।
तेउतिगूणतिरिक्खेसुम्जोवो बाहरेसु पुण्णेसु ।
माणं पयडीणं ओघ वा होदि उदओ दु ॥२६॥ तेजस्कायिक, वायुकायिक और साधारण वनस्पतिकायिकः-५न तीनों को छोड़कर अन्य बापर पर्याप्तक लियचों के उद्योत प्रकृति का उदय होता है। इनके अतिरिक्त अन्य शेष रही प्रकृतियों का उदय गुणस्थानों के अनुसार जानना चाहिए।
इस प्रकार से कमप्रकलियों के उदय-नियमों को फहकर अब मार्गणाओं में उदय-प्रकृतियों का कथन करते हैं। गतिमार्गणा
थोणतिथीपुरिस्णा घादी णिरयाउणीचयणियं ।
णामे समचिठाणं गिरमाण णार सुदया ।।२।। स्त्यानद्धि आदि तीर, स्त्रीवेद और पवेद इन पाँच के सिवाय घाति कर्मों की ४२ प्रकृत्तियां, चरकायू, नीच गोत्र और साता असाता वेदनीय तथा नामकर्म में से चारकियों के भाग्यापत्ति के स्थान में होने वाली २६ प्रकृलियाँ तथा नरकगत्यानपूर्वी ये ७६ प्राकृतियाँ भरकगति में उदय होने योग्य हैं। २६ प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं...
वेगुव्वतेजविरसुदुग दुग्गदिहुंडणिमिण पंधिन्दी ।
पिरयगदि दुब्भमागुरुतसवण्णच य बचिठाणं ।२६१३॥ क्रिय, तैजा, स्थिर, शुभ-~इनका युगल और अप्रास्त विहायोगति, हुँस संस्थान, निर्माण, पंखेन्द्री, नरकगति सथा दुभंग-अगुसलधु-बस-वर्ण