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सन्धादि स्वामित्व : दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तव्य
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श्या मार्गमा
किण्हदुगे सगुणोघं मिन्छे गिरयाणु वोच्छेदो ३५३२५।। साणे सुराउसुरगदिदेवतिरिक्खायु दोछिदी एवं । काओदे अयदगुणे पिरयतिरिक्वाणुयोछेदो ॥३२६॥ तेतिये सगुणोघं शादाविगिविमलयावरच उक्के ।
गिरयदुतदातिरियाणु पराण पड़ मिच्छदुगे ॥३२५॥ लेश्या मार्गणा में कृष्ण, नील----इन दो लेश्यामों में अपने-अपने मुणस्थानवत् तीर्थरादि तीन प्रकृतियों के सिधाय ११६ प्रकृतियां उपयोग्य है । लेकिन मिथ्याइष्टि गुणस्थान में नश्कानपूर्वी भी छिन समझना । सासादन गुणस्थान में देवाथु. देवगति. देवानुपूर्वी, लियंत्रानुपुची... इन चार की व्युछित्ति होती है । इसी प्रकार कापरेत लेल्या में भी, किन्न अभिरत मणस्थान में नरमानपूर्वी व तिर्यंचानुपूर्वी इन दो प्रकृतियों की व्युछित्ति है ।।
तेजोलेश्या आदि तीन शुभ लेण्याओं में अपने-अपने स्थानवत् १२२ में से आत्तप, एकन्द्रिय, विकलेन्द्रियनिक, स्थावर बादि पार, परकगसिद्धिक, नरकायु, तिर्यंचा नुपूर्वी--एन १३ प्रकृतियों का उदय न होने से १.६ प्रकृतिमा उदथयोरख है । उसमें भी मिघ्याट्टष्टि आदि दो गुणस्थानों में मनुष्यानुपूर्वी का भी उदय नहीं है। भव्य, सम्धव व संज्ञी प्राणा
वाश्यमम्मो वेसो पर एक जदो तहि ण तिरियाऊ ।
उज्जोवं तिरियमदी लेसि अयाम्हि वोच्छेदो ॥३२॥ भव्य, अभय, उपशमसम्यक्त्व, वेदक (क्षायोपशमिक) सम्यमत्व और नायिकमध्यम मार्गमानों में अपने अपने गुणवान के कथन की तरह जानना किन्न विशेष यह जानना कि उपशमसम्यवस्न तथा साधिकसम्यक्त्व में सम्यक्त्वमोहनीय उदययोग्य नहीं है तथा उपणमसम्यवस्व में आदि की नरकानुपूर्वी आदि तीन आनुपूर्वी और आहारकद्रिक ये प्रकृतियाँ उत्ययोग्य नहीं है।
भविदरुवसमवेदगखाइये सगुणोधभूवसमे खयिये । ण हि सम्ममुवसमे पुणा मादितियाणू य हारदुर्ग १५३२६।।