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अन्धविस्वामिस्व विगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तभ्य
देवे वा वे मिस्से परतिरियआउन गुर्णवाहरे तम्मिस्से पत्थ
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पत्थि । देवाक ॥११॥
fer काययोग में देवर्गात के समान बंधविच्छेद आदि समझना चाहिए । क्रियमिश्र काययोग में सौधर्म ऐशान सम्बन्धी अपर्याप्त देवों के समान बंधयुति है, किन्तु उस मिश्र में ममुष्यायु और विषाणु का बन्ध नहीं होता है । आहारक काययोग में छठे गुणस्थान जैसा बन्धविच्छेद आदि होता है । आहारक मिश्रयोग में वायु का बन्ध नहीं होता है ।
कम्मे उराल मिस्स वाणावदुषि व हिंदी अयदे 1
कार्मण काययोग में वन्धविच्छेद आदि औदारिकमिव काययोग के सदृश हैं। लेकिन विमति में आयु का बन्ध न होने से मनुष्यायु तथा तिचायु- इन दो का भी नहीं होता है और वो गुणस्थान में नौ प्रकृतियों की व्युत होती है ।
वेद से आहारक मार्गणा पर्यन्त
वेदादाहारोति य सगुणट्ठाणा मोचं तु ॥ ११६ ॥ वरिय सत्रसम्मै रसुरक्षाऊणि गस्थि नियमेण । frewriter raj वारंण हि तेउपम्मेसु ॥ १२० ॥ सुक्के सदर वामतिमबारसं च व अfe | कम्मेव अणाहारे बंधस्संतो मगंतो य ॥१२१॥ वेणा से लेकर आहारकमागंणा तक का कथन गुणस्थानों के साधारण कथन जैसा समझना चाहिए ।
लेकिन सम्यक्त्रमार्गणा तथा लेण्यामार्गणा को शुभलेश्याओं में और आहारमार्गणा की कुछ विशेषता है कि
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मार्गेणा में सभी अर्थात् दोनों ही उप सम्यक्त्व जीवों के मनुष्यायु और वायु का बन्ध नहीं होता | Heereint में तेजोलेश्या वा के मिध्यात्व गुणस्थान की अन्त की नौ तथा पदमलेश्या वाले केमिया गुणस्वान की अन्य की बारह प्रकृतियों का बंध नहीं होता है। शुक्ललेश्या