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ततीय कर्मनन्य : परिशिष्ट
पंचेन्द्रिय जीवों के व्युछित्ति आदि गुणस्थान की सरह समझना चाहिए । कायमार्गणा में पृथ्वीकाय आदि बनस्पतिकायपर्यन्त में एकेन्द्रिय की तरह ज्युछित्ति आदि जानना । विशेषता यह है कि तेजस्काय तथा वायुकाय में मनुष्य गति, मनुष्यानुपूओं, मनुष्यायु और उच्च गोल- इन चार प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है और गुणस्थान एक मिश्यादृष्टि ही है। যাল
ओघं सस मणवपणे ओराले मणुगइभंगो ।।११।। श्रमकाय में अन्ध-विद आदि गुणस्थानों की तरह समझना चाहिए । योगमार्गणा में मनोयोग तथा वचनमोग की रसना भी गुणस्थानों की तरह है तथा औदारिक काययोग में बन्ध विच्छेद आदि मनुष्यगति के समान है।
ओराले वा मिस्से ण सुरणिरयावहारणिरयदुर्ग । मिच्छदुगै देवचओ तित्थं हि अविरदे अस्थि ।।११६।। औमारिकमिध काययोग में औदारिक काययोग की तरह बन्ध-विच्छेद आदि हैं, लेकिन इतनी विशेषता है कि देवाय, नरकायु, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग, नरकागति, नरकासुपूर्वी..इन छह प्रकृतियों का बता नहीं होता है, अर्थात् ११४ प्रकृतियों का ही बन्ध होता है 1 इनमें भी मिथ्यात्व और सास्वादन....इन दो गुणस्थानों में देवचतुष्क और तीर्थङ्कर नाम... इन पाँच प्रकृत्तियों का बन्ध नहीं होता, किन्न भ्रीय अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में इनका बन्ध होता है।
पणारसमुनतीस मिच्छदुो अविरदे सिंदी बजरी।
वरिमपणमट्ठीवि य एक्कं सादं सजोगिम्हि ॥११७।। औदारिकमिश्र काययोग में मिश्याच और सास्वादन' इन दो गुणस्थानों में १५ व २६ प्रकृतियों का बन्ध-विच्छेद क्रम से जानना चाहिए । चौधे अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में ऊपर की चार तथा अन्य ६५ –कुल मिलाकर ६६ प्रकृतियों क सन्धविनोद होता है। तेरह सयोगिकेवली गुणस्थान में सिर्फ एक सासावेदनीय की व्युमिछत्ति होती है।