Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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साधावि ग्वामित्व : विगम्बर कर्म साहित्य का मन्सम्य
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समझना चाहिए । परन्तु इतनी विशेषता है कि मध्यावृष्टि गुणस्थान में ईशान स्वर्ग तक पहले गुणस्थान की सोलह प्रकृतियों में से मिथ्यारा प्रादि साल REतियों को ही व्यच्छिास होतो है । मेष रही हुई सूक्ष्मादि नौ सवा देवमति, देवानुपूर्ती, वैक्रिय भारीर, क्रिम अंगोपांग, देवायु, माहारक शारीर, बाहारक अंगोपांग-७ कुल सोलह अन्धरूप हैं। इसलिए यहाँ बन्धयोग्य प्रकृतियाँ १०४ हैं । भवनवासो, स्यंतर और ज्योतिषी देवी में सीकर प्रकृति का गन्ध नहीं होने से १.३ प्रतिमा बन्धयोन्य है। नित व काम मार्गणा
पुणिदरं विगिविगले तत्थुप्यायो हु ससाण्ड) देहे। पज्जत्ति वि पावदि इदि गरितिरियाउग पत्थि ।।११३।। एकेन्द्रिय और विकलय कोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय और मसुरिन्द्रिय) में लम्धिअपर्याप्त अवस्था की तरह बन्धयोग्य १०६. प्रकृतियाँ समरना माहिए । क्योंकि अपर्याप्त अवस्था में तीर्घर, आहारकठिक, देवायु, नरकागु और कियपदक... इन ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता है। केन्द्रिय एवं विकलत्रय के पहला और दूसरा ये दो शृणस्थान होते हैं। इनमें से पहले गुजस्थान में बन्धभ्यूक्षित्ति १५ प्रकृतियों की होती हैं। क्योंकि यषि पहले गुणस्थान में १६ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद कहा गया है, परन्तु यहाँ पर उनमें से मरकद्रिक और गरमायु ट जाती है तथा मनुष्यायु और तिर्यचायु बढ़ जाती है । अत: १५ मा ही चिच्छेद होता है। मनुष्यायु और सिय वायु के सन्धविश्वेद को पहले गुणस्थान में कहने का कारण यह है कि एकेन्द्रिय और विफलेन्द्रिय में उत्पन्न हुआ जीन सास्वादन मृणास्थान में भरीरपर्याप्सि को पूर्ण नहीं कर सकता, क्योंकि सास्वादन गुणस्थान का काल अल्प है और नियति अश्याप्त अवस्था का काल अधिक । इस कारण सास्वादन मृगस्थान में मनुष्या व तिचाय का बन्ध नहीं होता है और प्रथम गुणस्थान में ही बन्ध और विच्छेद होता है।
पंचेन्दिगेसु ओषं एयरले वा वणपदीयते । मणुवदुगं मणुकाऊ उन्ध गहि तेउ बाउम्हि ।।११४।।
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