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मृतीय कर्म प्रश्य : परिशिष्ट ऋषभनाराच संहनन आदि छह प्रकृतियों की व्युछिक्ति दूसरे सास्वादन गुणस्थान में हो जाती है । क्योंकि यहां पर नियंच मनुष्यगति सम्बन्धी प्रकृतियों का मिश्यादिक में बन्ध नहीं होता है। उक्त कथन निर्गच में सामान्य विच (
मत्रों का समय 1), पंथेन्द्रिय तियंच, पर्याप्त तिर्यच, स्त्रीय विच और लध्यपर्याप्त नियंत्र--- इन पाँच भेदों में से लयपर्याप्त भेद को छोड़कर शेष चार प्रकार के तिर्यत्रों की अपेक्षा समझना चाहिए। लध्यपर्याप्त नियंचों के तीर्थर नाम और आहारक शरीर. आहारक अंगोपांग-मन लीन प्रकृतियों के साथ निम्न लिखित
सुरणिरयाउ अपुषों केगुम्वियाक्कमवि स्थि ।।१०६ ।। देवायु, नरकायु और वैश्यिषटक–देवगति. देवानुपूर्वी, नरकगति. नरकानुपूर्वी, वैक्रिय पारीर, बैंक्रिय अंगोपांग-इन आ3 प्रकृतियों का भी बन्ध नहीं होता है।
तिरियेध गरे गवरि हु तिस्थाहारं च अस्थि एमेव ॥११०।। मनुष्यति में अन्धयुमिति वगैरह तिर्यक्गति के समान समझना चाहिए, लेकिन प्रसनी निशेषता है कि मनुस्मगति में तीर्थ क्रूर और आहारकद्रिक आहारक अरीर, थाहारक अंगोपांग--इन सीन का भी बन्ध होने से १२० प्रकृतियाँ बनायोग्य है। मनुष्यगति में गुणस्थान १४ होते हैं, अतः गुणस्थानों की तरह मनुष्यगति में भी बन्धविच्छेद समझना चाहिए।
मनुष्यगति में उक्त प्रतिबन्ध विच्छेद सामान्य से बताया है. किन्तु ललि-अपर्याप्त मनुष्य के बन्ध आदि तिर्यंच लब्धि-अपर्यास्त के समान समझना चाहिए । अर्थात् मधि-अपर्याप्त मनुष्य के भी १०६ प्रकृतियाँ बधयोग्य हैं।
णिरयेव होदि देवे आईसाणोत्ति सत्त काम छिदी 1
सोलस चेव अबन्धा भवतिए णस्थि तिस्थयरं ॥११॥ देवगति में कर्मप्रकृतियों का बन्धविनोद आदि नरकगति के समान