Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मप्रन्थ : परिशिष्ट
मिथ्यात्व आदि चौदह गुणस्थानों में क्रमशः १६, २५, ० (शून्य), १
४, ६, १, ३६ (२+३४), ५, १६.
०.०१ प्रकृति व्युच्छिन
होली है ।
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गुणस्थानों में कर्मप्रकृतियों के बन्ध का सामान्य नियम इस प्रकार हैंसम्मेa farest आहारदुगं पमादरहिदेसु । मिस्सू आउस् य मिच्छादिसु सेसबन्धी ॥२॥
अविरतम्यष्टि गुणस्थान से तीर्थकर प्रकृति का कध होता है । आहारकद्रिक का अप्रमत्तसंयत गुणस्थान में बन्ध होता है। मिश्र गुणस्थान में आयु का बन्ध नहीं होता है तथा शेष प्रकृतियों का बन्ध मिथ्यादृष्टि आदि afe गुणस्थानों में अपने बन्ध की व्युच्छित्ति तक होता है ।
मार्गणाओं में बन्ध, अबन्ध, बन्धयुच्छित्ति
छति-
मार्गणाओं में कर्मप्रकृतियों का बन्ध, अara और बन्ध ये तीनों अवस्थाएँ गुणस्थान के समान समझना चाहिए । लेकिन उनमें जोजो विशेषता है, उसको गति आदि प्रत्येक मार्गणा को अपेक्षा क्रमशः स्पष्ट
करते हैं ।
गतिमार्गणा
ओये वा आदेसे णारयमिच्छ िचारि वोच्छिणा ।
उवरिम वारस सुरचउ सुराज आहारयमबन्धा ॥ १०५ ॥
मार्गणाओं में युति आदि गुणस्थानों के समान समझना, लेकिन मिथ्यात्व गुणस्थान में व्युच्छिन्न होने वाली सोलह प्रकृतियों में से नरकगति
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१ किसी भी प्रकृति का बन्धविच्छेद नहीं ।
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२ व्युच्छिन्न नाम है विलड़ने का । जिस गुणस्थान में कम की व्युच्छिन्न होने वाली प्रकृतियों की संख्या कही गई है, उसका अर्थ यह है कि उस गुणस्थान तक तो उस ति का संयोग रहता है, उसके आगे के गुणस्थान में उसका बन्ध, उदय और सत्ता नहीं रहती है ।