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मार्गचाओं में बन्ध, उदय और सत्ता-सामित्व ferre दिगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तव्य
तृतीय कर्मग्रथ में गुणस्थानों के आधार से मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का से कथन किया गया है। इसी प्रकार से गोम्मटसार कर्मकाण्ड में गाधा १०५ १२१ तक में भी किया गया है तथा सामान्य से उसको जानने के लिए जिन बातों की जानकारी आवश्यक है, उनका संकेत भी गाथा ६४ से १०४ में है ।
उपस्थानों के वाथों में
का विचार प्राचीन a नवीन तृतीय कर्मग्रन्थ में नहीं है, वह भी मो० कर्मकाण्ड में गा० २६० से ३३२ तक में किया गया है तथा इसके लिए आवश्यक संकेत गाथा २६३ से २८६ तक में संगृहीत हैं। इस उदयस्वामित्व प्रकरण में उदीरणास्वामित्व का विचार भी सम्मिलित हैं। इसी प्रकार मार्गणाओं में सत्तास्वामित्व का विचार भी गो० कर्मकाण्ड में है, किन्तु कर्मग्रस्थ में नहीं यह प्रकरण गो. कर्मकाण्ड में गाथा ३४६ से ३५६ तक है तथा इसके लिए सामान्य संकेत गावा ३३३ से ३४५ में है ।
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कर्मशास्त्र के अध्येताओं को उस अंश तुलनात्मक अध्ययन करने एवं विज्ञान की दृष्टि से उपयोगी होने से कतिपय आवश्यक अंश उत किये जाते हैं। पूर्ण विवरण के लिए गी० कर्मकाण्ड के उक्त अंशों को देख लेना चाहिए 1
aratवामित्व
गुणस्थानों पूर्वक मार्गणाओं में बंधस्वामित्व का विवेचन करने के लिए गुणस्थानों में सामान्य से बन्धयोग्य, अवन्धयोग्य तथा बन्धविच्छिन्न होने वाली कर्मकृतियों की संख्या को तीन गाथाओं द्वारा बतलाते हैं