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तृतीय कर्म ग्रन्थ : परिशिष्ट
अविरत यहाँ पहले से चौथे गुणस्थान तक सत्तास्वामित्व मनुष्यगति मार्गणा के समान समझना चाहिए।
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दर्शन और अवशुदर्शन- इन दोनों मार्गणाओं में पहले से बारहवें गुणस्थान तक स्वामित्व मनुष्यगति मार्गणा के समान समझना चाहिए। अवधिवर्शन --- यहाँ अवधिज्ञानमार्गणा के अनुसार सत्तास्वामित्व समझता
चाहिए ।
केवल दर्शन केवलज्ञानमार्गेणा के सद्दश्य सत्तास्वामित्व समझना चाहिए।
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कृष्ण, नील और कापोत लेवा-तीन मार्गणात्रों में पहले से लेकर छठे गुणस्थान तक मनुष्यगति के अनुसार सत्तास्वामित्व समझना चाहिए।
तेज और पद्म लेश्या - पहले से सातवें पुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए।
शुक्ला पहले से लेकर तेरहवं गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान ससा समझना चाहिए ।
भव्य -- मनुष्यगति के समान सत्तास्वामित्व समझना चाहिए ।
अभव्य - सामान्य से और मिथ्यात्व गुणस्थान में जिननाम, जाहारकaare, area और मिश्रमोहनीय इस सात प्रकृतियों के बिना १४१
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प्रकृतियों की सता होती है ।
औपशमिक सम्यक्त्व.
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- चौथे से ग्यारहवें गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्ता समझना चाहिए ।
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arattern सम्यक्रव - इसमें चौथे से सातवें गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान सत्ता समझना चाहिए ।
क्षायिक सम्यक्त्व - यहाँ अनन्तानुबन्धचतुष्क और दर्शनमोहनीय त्रिक इन सात प्रकृतियों के बिना सामान्य से १४१ प्रकृतियों की सत्ता होती है और चौथे से चौदह गुणस्थान तक मनुष्यगति के समान स्वामित्व समझना चाहिए ।
सास्वादन - यहाँ सामान्य से और दूसरे गुणस्थान में जिननाम के बिना १४७ प्रकृतियों की सत्ता होती है ।