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अन्धादि स्वामिee विगम्बर कर्मसाहित्य का मन्तब्य
में मिध्यात्व, हुड संस्थान, नपुंसक वेद, सेवार्त संहनन इन चार की व्युत होती है तथा इनके अतिरिक्त शेष चार प्रकृतियों तथा देवनति देवानुपूर्वी, वैय शरीर वैयि अंगोपांग, देवायु, आहारक शरीर, आहारक अंगोपांगये सब १६ प्रकृतियाँ हैं । अर्थात् नरकपति के मिध्यात्व गुणस्थान में ११ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता | aaca सामान्य से बन्धयोग्य १०१ प्रकृतियाँ हैं ।
घम्मे fari Traft वसामेधाण पुगो वेव । छट्ठोत्तिय मणुवाऊ बरिमे मिच्छेव तिरियाऊ ॥११०६॥
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वर्मा ( प्रथम नरक) में पर्याप्त, अपर्याप्त दोनों मवस्थाओं में तीर्थकुर प्रकृति का बन्ध होता है। दूसरे, तीसरे (मंशा भैया) नरक में पर्याप्त जीव को तीर्थङ्कर प्रकृति का वध होता है । छटे ( मघवी ) नरक तक मनुध्यायु का बन्ध होता है। सातवें (Heat) नरक में मिथ्यात्व गुणस्थान में ही ि का बन्ध होता है।
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मिस्साfवर उच्च मणुवदुगं सत्तमे हवे बंधो। मिच्छा arenaम्मा मदुगुच्च ण बंधति ॥ १०७॥ सातवें नरक में मिश्र और अविरत गुणस्थान में होग मनुष्य गलि. मनुष्यानुपूर्वी इन तीन प्रकृतियों का बंध है। मित्या व सामादन गुणस्थान वाले जीव कहाँ पर जब गोत्र और मनुष्यद्रिक इन तीन प्रकृतियों को नहीं बांधते हैं।
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तिरिये ओधो तित्याहारूणो अविर छिदी चउरो । उवर छिदी सामणसम्मे हवे नियमा ॥ १०८॥
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तिगति में भी व्युच्छित्ति आदि गुणस्थानों की तरह ही समझना । परन्तु frer है कि तीर्थकर आहारक शरीर, आहारक अंगोपांग—इन तीन प्रकृतियों का बन्ध ही नहीं होता है। अतः सामान्य से ११७ प्रकृतियों चि गति में बन्धयोग्य हैं। बीधे अविरत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि ४ की ही व्युच्छित होती है तथा सेय रही मनुष्यगति-योग्य वा
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