Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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असंभव है। प्राचीन बन्धस्वामित्व में भी इसी प्रकार मिच्छे सासाने या अविश्यसम्मम्मि अब महिय अंति किया परखोए सेसेक्कारसने मीस अर्थात - जीव मरकर परलोक में जाते हैं, तब वे पहले, दूसरे या गुणस्थान को ग्रहण किये हुए होते हैं, परन्तु इन तीनों के सिवाय शेष ग्यारह गुणस्थानों को ग्रहण कर परलोक के लिए कोई जीव समन नहीं करता । अतएव इसमें सामान्य रूप से १०२, पहले गुणस्थान में १०१, दूसरे में ६४ और चौथे गुणस्थान में ७१ प्रकृतियों ar area fire समझना चाहिए । वैक्रिय काययोग लब्धि से भी पैदा होता है। जैसा कि पाँचवें गुणस्थान में वर्तमान अम्बड़ परिव्राजक' आदि ने तथा छठे गुणस्थान में वर्तमान विष्णुकुमार आदि मुनि ने वैक्रिय लब्धि के बल से वैयि शरीर किया था। यद्यपि इससे वैयि काययोग और वैश्रियमिश्र काययोग का पfer और छठे गुणस्थान में होना संभव है, तथापि वैक्रिय काययोग वाले जीवों के पहले से लेकर चौथे तक चार गुणस्थान तथा क्रियमिश्र काययोग में पहला, दूसरा और चौथा ये तीन गुणस्थान बतलाये गये हैं, उसका कारण यह जान पड़ता है कि यहाँ aa और नारकों के स्वाभाविक भवप्रत्यय वैकिय शरीर की विवक्षा है । इसलिए उनके आदि के चार गुणस्थान माने गये हैं । लब्धिप्रत्यय वैक्रिम काययोग की विवक्षा से मनुष्य, तिर्यंच की अपेक्षा अधिक गुणस्थानों में उसकी विवक्षा नहीं है । अर्थात केवल भवप्रत्यय वैकिय शरीर को लेकर ही वेत्रिय काययोग तथा क्रियमित्र काययोग में क्रम से उक्त चार और तीन गुणस्थान बतलाये हैं ।
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१ वेध्वं पञ्जसे इदरे खलु होदि तस्म मिसं तु . सुरणिग्यचउठाणे मिस्से महि मिजोगो है 11
२ लब्धप्रत्ययं च ।
३ अम्बड़ परिवाजक का वर्णन औपपातिकः
स्वामित्व
।
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० खोड ६८२
--तस्वार्थसूत्र २१४e