Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कर्मण्य
और गुणस्थानों की अपेक्षा बन्धाधिकार के समान चौथे से लेकर alega तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार समझना चाहिए ।
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मिथ्यात्व सास्वादन और मिश्र- ये तीनों भी सम्यक्व मार्गमा के भेद हैं और इनमें अपने-अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान होता है । अतएव इन तीनों का सामान्य तथा विशेष बन्ध अपने-अपने नाम गुणस्थान के उमा संग बाहिए ।
संयममार्गणा के देशविरति और सूक्ष्मपराय संयम में अपने-अपने नाम वाला एक-एक गुणस्थान, अर्थात् देशविरति में देशविरल नामक feat और सूक्ष्म पराय में सूक्ष्मसंपराय नामक दसवाँ गुणस्थान होता है । अतएव इन दोनों का बन्धस्वामित्व भी इन-इन गुणस्थान के समान सामान्य और विशेष रूप से समझना चाहिए।
आहारकमार्गणा में मोक्ष न होने से पूर्व तक के सभी संसारी जीवों का ग्रहण किया जाता है। अतएव इस मार्गणा में पहले से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक तेरह गुणस्थान हैं। इस मार्गणा में सामान्य से तथा प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए।
इस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणा व संयममार्गेणा के कुछ भेदों तथा आहारमार्गणा में सामान्य और विशेष में बन्धस्वामित्व का कथन करने के पश्चात अब सम्यक्त्वमार्गेणा के भेद उपशम सम्यक्त्व की विशेषता को आगे की गाथा में बताते हैं-
परमुमि वता आज न बंधंति तेण अजयगुणे । देवमणुआउहोणो देसाइस पुण सुराउ विणा ॥२०॥
गाणार्थ - उपशम सम्यक्त्व में वर्तमान जीव बायुबन्ध नहीं करते हैं। इसलिए अयत अविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में देवायु और मनुष्या को छोड़कर अन्य प्रकृतियों का बन्ध होता है तथा
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