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तृतीय कर्म प्राय तेरहवें और चौदहवें इन पांच गुण स्थानों में पाई जाती हैं। इनमें से पहला, दूसरा और चौथा-..ये तीन गुणस्थान उस समय होते हैं, जिस समय जीव दूसरे स्थान में पैदा होने के लिए विग्रहगति से जाते हैं, उस समय एक, दो या तीन समय पर्यन्त जीव को औदारिक आदि स्थूल शरीर नहीं होने से अनाहारक अवस्था रहती है तथा सेरहवें गुणस्थान में केवली समुद्घात के तीसरे, चौथे और पांचवें समय में अनाहारकत्व रहता है। चौदहवें गुस्थान में योग का निरोध (अभाव) हो जाने से किसी तरह का आहार संभव नहीं है। इसीलिए उक्त पांच गुणस्थानों में अनाहारक माणा मानी जाती है।
किन्तु यहां जो कामण योग के समान अनाहारक मार्गणा में बन्धस्वामित्व कहा है उसका कारण यह समझना चाहिए कि यहाँ चार गुणस्थान बन्ध की अपेक्षा से बताये गये हैं, क्योंकि अयोगी तो योगनिरोध (अभाव) के कारण अवन्धक ही हैं । शेष रहे पहले, दूसरे, चौथे और तेरहवें गुणस्थान, उनमें भी विग्रहाति स्थित जीव के भवधारणीय शरीर के अभाव के कारण अनाहारक अवस्था होती है तथा तेरहवें गुणस्थान में जब केवली समुदघात करे, तब तीसरे चौथे और पांचवें समय में अनाहारक अवस्था होती है । इस अपेक्षा से तेरहवाँ गुणस्थान समझना चाहिए। ___ अनाहारक मार्गणा में कार्मण योग के समान सामान्य से ११२
१. (क) पढमतिमदगअजया अणाहारे मग्मणामु गुणा !
___... कर्मास्य, ४॥२३ (ख) विग्गदिमावण्णा केवनिणो समाषदो अजोगीय । सिद्धा य अणाहास सेसा आहारया जीचा ॥
—पो जीवका, ६३५ २. एक हौ बीन्दानाहारकः ।
स्वासून २१
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