Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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बाधकामित्व
मतानुसार उनमें चार गुणस्थान ही माने हैं । यह चार गुणस्थानों का कथन पंचसंग्रह और प्राचीन बन्धस्वामित्व के मतानुसार है। पंचसंग्रह और प्राचीन बन्धस्वामित्व की तत्सम्बन्धी गाथाएँ घर प्रकार है'छल्लेस्सा जाब सम्मोति'
पंचसंग्रह १-३० 'छस्मसु सिक्षिण सीमुछएहं सुक्का अमोगी अलेस्सा ।'
__प्राचीन बंधस्वामिस्व, गाथा ४० उक्त मलों का समर्थन गोम्मटसार में भी किया गया है। अतएव कृष्णादि तीन लेश्याओं में बन्धस्वामित्व भी चार गुणस्थानों को लेकर ही किया गया है। कृष्ण आदि तीन लेण्याओं को पहले चार गुणस्थानों में मानने का आशय यह है कि ये लेश्याएं अशुभ परिणाम रूप होने से आगे के अन्य गुणस्थानों में नहीं पाई जा सकती हैं । तेज आदि तीन लेश्याओं में से तेज और पा.--- ये दो लेश्याएं शुभ हैं परन्तु उनकी शुभता शुक्ललेण्या से बहुत कम है, इसलिए वे दो लेण्याएं सात गुणस्थान तक पाई जाती हैं और शुक्ललेश्या का स्वरूप परिणामों की मन्दता (शुद्धता) से इतना शुभ हो सकता है कि वह तेरहवें गुणस्थान सक पाई जाती है ।
इन छह लेश्याओं का सामान्य 4 गुणस्थानों की अपेक्षा बंधस्वामित्व गाथा २१ और २२ में बतलाया जा चुका है। अतः वहाँ से समझ लेना चाहिए।
१ थावरकायप्पहुदो अविरक्षसम्मोत्ति अमुहतिहलेस्सा। सारणी दो अपमलो आव दु सुझतिपिपलेस्साओ ।।
___..-गो जीवकांड ६९१ अर्थात् पहली तीन अशुम लक्ष्याएँ स्थावरकाय से लेकर चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त होती हैं और अन्त को सीन शाभ लेण्याएं संशी मिथ्याष्टि से लेकर अप्रमत्तपर्वन्त होती है ।