Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीयं कर्मपत्य
यद्यपि रहने. दुसरे, चौथे, लेरह और चौदह, इम पाँच गुणस्थानों में अनाहारक अवस्था होती है। किन्तु बन्धकी अपेक्षा से अनाहारक मार्गणा में कार्मण कानयोग के समान पहला, दूसरा, चौथा और तेरहवा ... गे चार गुणस्थान होते हैं । क्योंकि कर्म बन्ध होना वहीं तक संभव है, और इनमें सामान्य व गुणस्थानों की अपेक्षा बन्ध कामयोग के समान समझना चाहिए । अति सामान्य से ११२, पहले गुणरबान में १०७. दूसरे में १४, चौथे में : ५ च तेरहवें में १ कृति का धन्ध होता है ।
इस प्रकार गति दिनदह गाओं में मना मिल किया जा चुका है। अब आगे की गाथा में ग्रन्थ-समाप्ति एवं लेश्याओं में गुणस्थानों का कथन करते है .....
तिसु दुसु सुइकाई गुणा बङ सा तेर ति सामित ।
देविन्द रिलिहियं यं का सत्यव खोइ ॥२४॥ गयाथं ... पहली तीन लेण्याओं में आदि को चार मुणस्थान, तंज
और पद्म इन दो लेश्याओं में आदि के सात गुणस्थान तथा शुक्लतेश्या में तेरह मुणस्थान होते है । इस प्रकार श्री देवेन्द्रसूरि द्वारा रचित इस बन्धस्वामित्व प्रकरण का ज्ञान 'कमस्तक' नामक दुसरे कर्मग्रन्थ को जानकर करना चाहिए।
विशेषायें - इस गाया में ग्रन्थ-समाप्ति का संकेत कर हालंधमाओं में गुणस्थानों को बतलाया है।
लेण्याओं में गुणस्थानों का कथन अलग से करने का कारण यह है कि अन्य मार्गणाओं में जितने कितने गुणस्थान चौथे कर्मग्रन्थ में बतलाये गये हैं, उनमें कोई मतभेद नहीं हैं, पर- लेश्यामार्गमा के सम्बन्ध में सा नहीं है । चौथे कर्मग्रन्थ के मतानुसार कृष्ण आदि तीन लेण्याओं में छह गुणस्थान है। परन्तु इस तीसरे कर्मग्रन्थ के
१ अस्माभिम पक्षमदुर्ग परमतिलेसासु छच्च दुस सला