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मार्गणाओं में अवय-उदीरणा-ससा-स्वामित्व
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कृष्ण, नील, कायोत लेश्या-त्यहाँ पूर्वप्रतिपन्न की अपेक्षा प्रथम से लेकर छह गुणस्थान होते हैं। जिननाम के बिना सामान्य से १२१ प्रकृत्तिर्या होती हैं, परन्तु प्रतिषश्चमान की अपेक्षा आदि के चार गुणस्थान होते हैं। उस अपेक्षा से आधारकट्रिक के बिना मामान्य से ११६ प्रतियां होती हैं और मिथ्यात्वादि गुणस्थानों में अनुक्रम में ११३. ११६. : " . ५०४, ५ ६ ५१ प्रकृतियों का उदय समझना चाहिए ।
तेजोलेश्या- इसमें पहले से लेकर अपमत तक सात गुणम्यान होते हैं । इसमें सूक्ष्मत्रिक, विकसत्रिक, नरवत्रिश, जातपनाम और मिननाम इन ११ प्रकृतियों के बिना सामान्य से १११, आहारफद्रिक, सम्पावरक और मिश्र मोहनीय के सिवाय मिथ्यात्व शुणस्थान में १०७, मिथ्याय के बिना सास्वादन में १०६, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्थावरनाम, एकेद्रिय और आनु. पूर्वीत्रिक-इन नौ प्रकृतियों के सिवाय और मिश्नमोहनीय के गिलाने पर मिश्र गस्थान में 6. आनुपूर्वी त्रिक और सभ्यत्व मोहनीय का प्रक्षेप करने
और मिनमोहनीय को कम करने पर ति सम्शादृष्टि तपस्यान में १०१, अप्रत्याश्यानावराय. आनुपुर्नीत्रिक, टिदिकयाति, देवायू, मंगनाम, अनाव और अयश न १४ प्रकलियों के बिना देअविरत गुणस्थान में ८५. प्रगत गुणः थान में हैं और अप्रमत्त में ७६ प्रकृतिया होती है।
पवमलेश्या- इसमें साल गुणस्थान होते हैं । इसमें स्थावर चतुष्क, जाति असुष्म, नरकषिक, जितनाम और आताप इन तेरह प्रकृत्तियों के बिना मामान्य से १.६ प्रकृत्तियाँ उदग्र में होती है । सनत्कुमार, माहेन्द्र और ब्रह्मलोक के देवों के पद्मलेश्या होती है और वे मरकर एकेन्द्रिय में नहीं जाते हैं. तथा नरक में पहली तीन लेश्वार होती हैं और जितनाम का उदय शुवललेश्या वाले को ही होता है । असायन शावरचत आदि तेरह प्रकृत्तियों का विच्छेद कहा है। आहारकटिक, मभ्यस्त्वमोहनीय और मिश्रमोहनीय-...इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्याल गणस्थान में १३५, सास्वादन में मिथ्यात्न के बिना १०४. अनन्तानुबन्धीचताक और आनुपूर्वीरिक इन सात प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर प्रकृतियां मित्र गुणस्थान में होती है। उनमें से मिश्रमोहनीय को कम करने और आनुपू/त्रिक तथा