Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मार्गणाओं में उदय-उदोरणा-ससर स्वामित्व
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१५०, उनमें से मिश्र मोहनीय को निकालकर बदले में सम्पनत्यमोहनीय को जोड़ने से अविरस गणस्थान में १००, अप्रत्याभ्यानावरणचतुष्क, बैंक्रियतिक, देवगत, वायु, परकमति, नरकायु, दुभंग, अनाथ और यज्ञ-- इन तेरह प्रकृतियों के बिना देशविरत गृणस्थान में ८७ प्रकृतियां होती हैं। आने के गुणस्थानों में सामान्य उपयस्वामित्व समझना चाहिए ।
अनाहारक- इस मार्गणा में १. २, ४, १३ और १४—ये पाय गुणास्थान होते हैं। औदारिकद्विक वैक्रियतिक, आहारकद्रिक, संहननषदक, संस्थानषक, विहायो गतिद्विक, उपधास, पराघात, उमद्यास, पासप, उधोत, प्रत्येक, साधारण. मुस्वर, दुःस्वर, मिश्रमोहनीय और निद्रापंचक ---इस ३५ प्रकृतियों के बिना सामान्य खे ८. जिननाम और सम्यक्त्वमोहनीय-इन दो प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में २५. सूक्ष्म, अपर्याप्त, मिथ्यात्य और नरकत्रिक-इन छह प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन में ७६ प्रकृतियां होती है । मिश्र गुणस्थान में कोई अनाहारक नहीं होता है । अनन्तानुबन्धोचतुष्क, स्थावर और जातिपतष्क-इन नौ प्रकृतियों के बिना और सम्यक्त्वमोहनीय तथा नरकत्रिक इन चार प्रकृतियों को मिलाने पर अविरत गुणस्थान में ७४ प्रकृतिका होती हैं। वर्णवतरक. म. कार्मण. अमुकल , निर्माण, स्थिर, अस्थिर. भ. अभ, मनुष्यगति. पंचेन्द्रिय जाति, जिननाम, प्रसाधिक मुंभग, आदेय. यश. मनुष्याय, वेदनीयनिक और उच्चगोत्र-ये पच्चीस प्रकृतिमा ले रहर्वे मधोगिनली गुणस्थान में केवलममुश्वास करने पर तीसरे, चौथे और पांच समय में उदय होती हैं। वसत्रिका, ममुख्यगति, मनुष्यायु, उच्चगोत्र. मिननाम, साता अथवा असाता में से कोई एक वेदनीय, सुभग, आदेय, यश और पंचेन्द्रिय जाति---ये बारह प्रकृतिमा चौदहवें भूभस्मान में उदय होती हैं। यहीं सर्वत्र उदय में उसरवैक्रिय की विवक्षा नहीं की है। सिद्धान्त में पृथ्वी, अप और वनस्पति को सास्वादन मुणस्थान नहीं बताश है, सास्वादन गुणस्थान वाले को मतिश्रुतशानी कहा है । विभंगवानी को अवधिदर्शन कहा है और क्रियमित्र तथा पाहारकामिय में औदारिकमिय कहा है, परन्तु यह कर्मग्रन्थ में विवक्षित नहीं है।
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