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मार्गणाओं में उदय-दोषणा-सत्तास्वामित्व
विरत तुणस्थान में ५५ या ८६ प्रकृतियां होती हैं । तिर्यंचति, तिथंचायु, नीच पोन, उद्योल और प्रत्याख्यानाधरणस्तष्क इन आठ प्रकृत्तियों के बिना प्रमत गुणस्थान में ७५, स्स्यामद्धित्रिक के बिना अप्रमत्त गणाधान में ७५ और अन्तिम तीन संहनन के बिना अपूर्वकरण में ७२ प्रकृतियों होती हैं और उसके बाद आगे के मृणास्थानों में अनुक्रम से ६६, ६७. ५.६ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं ।
सायिक सम्यक्त्व-यहाँ चौथे से लेकर चौदहवं तक ग्यारह पुषस्थान होते हैं । इसमें जासिचतुष्क, स्थावरचतुष्क, अनन्तानुबन्धीचतुक, आसप, सम्यक्त्त, मिन, मिशात्य इन १६ प्रकृसियों के बिना सामान्य से १.६, आहारकनिक और जिननाम इन जातियों में ना अनिता युगाणान में १०३. अप्रत्याख्यानावरणचतुक, बैंक्रियाष्टक, मनुष्याम्पूर्वी, लियंत्रिक, दुभंग, अमादेय, अयम और उद्योत - इन २० प्रकृतियों के बिना देशविरत गुणस्थान में ३ प्रकृतियाँ होती हैं। प्रत्याख्यानाचरणमनुष्क व नीष गोत्र को कम करके आहारकट्टिक के मिलाने पर प्रमत्त गुणस्थान में प्रकृतियाँ होती है। स्त्यानदिनिक. आहारकदिक-इन पांच प्रकृत्तियों के बिना अधारस शुणस्थान में :१५, अपूर्वकरण में अन्तिम तीन संहान कम करने में १२ तथा आगे गुणस्थानों में उपयस्वामित्व के समान समझना चाहिए
आयोगशभिक सम्यक्त्त्र-इसमें चौथे से लेकर सातवें तक चार गुणस्थान होते हैं। भि यात्व. मित्र. जिननाम, जातिचतुष्क. स्थावरचतुष्क, आसप और अनन्सानुबन्धी चक इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १.६, आहारकडिक के बिना अविरत गुणस्थान में १०४, देशविरत स्थान में ६७, प्रमत्त में ८१ और अप्रमत्त में ७६ प्रतियों का उदय समझना चाहिए ।
मिन सम्पबश्व..- इसमें एक तीसरा मित्र पुषस्थान होता है और उसमें १०० प्रकृतियों का उदय होता है ।
सास्तावन..यहाँ सिर्फ दूसरा सास्वादन गुणस्थान होता है और उसमें १११ प्रकृसिंगों का उदय समझना चाहिए।
मिष्यास्य–समें प्रथम गुणस्थान होता है और उसमें आहारकटिक, जिननाम, सम्यनत्व और मिन इन पाय प्रकृतियों के बिना ११७ प्रकृतियों का उदय होता है।
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