Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur

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Page 150
________________ WAVIMA १२२ तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट संतो—इसमें चौदह गृणस्थान होते है । यमन के सम्बन्ध से केवलशानी को संझी कहा है, अतः यहाँ चौदह गुणस्थान होते हैं । परन्तु यदि मतिभानावरण के क्षयोपशमजन्य मनन-परिगामरूप भावमन के सम्बन्ध में संशी कहें तो इस मार्गणा में बारह मुणस्थान होते हैं । इसमें स्थावर, सूक्ष्म, साधारण, आता और जातिचतुश्क-इन आद प्रतियों के बिना सामान्य से ११४ प्रतियाँ उदय में होती हैं। यदि भावमन के सम्बन्ध से संशी काहै सो मंत्री मार्गणा में विलनाम का उदय न होने से उसे कम करने पर. ११३ प्रकृतियाँ होती हैं। प्राहारकष्टिक, सम्यक्त्व और मिश्र-इन चार प्रकृलियों के बिना मिशाब में १७६, अपर्याप्त नाम, मिथ्यात्व, नरकासुपूर्वी-इन तीन प्रकृतियों के बिना सास्वादन में १३६ प्रकृतियाँ होती हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्क और आपत्रिक... इन सात प्रकतियों के सिवाय और मिश्रमोहनीम के मिलने पर मिश्च गुणस्थान में १०. प्रकृतियों होती हैं और निरत आदि आने के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए । असंझो.....इस में आदि के दो गुणस्थान होते हैं । वैक्रियाष्टक, जिमनाम, श्राहारकद्विक, सभ्यपत्य. मिश्रमोहनीय, उच्चगोत्र, स्त्रीनेद और पुरुषवेद इन सोलह प्रकृतियों के बिना सामान्य से १०६ प्रक्तियां होती हैं। उनमें में भूक्ष्मत्रिक, आतए, उद्योत, मनूष्यविक, मिथ्यास्व. गराधात, जनाम सुस्वर, दुःस्वर, शुभ विहामोगति और अशुभ विहायोगति-इन पन्द्रह प्रकतियों के बिना सास्वादन में ११ प्रफ तियाँ होती हैं। मन्तति में उदयस्थानक में असंत्री को छह महनन और ग्रह संस्थान के मांगे दिये हैं. इसलिए उसे वह संहनन और छह संस्थान तथा सुभग, आदेष और शूभ विहायोगलि का भी सवय होता है। आहारष-हममें लेरह गुणस्थान होते हैं। आनुपूर्वीचतुष्क के बिना सामान्य से ११८, महारकादिक, जिननाम, सम्मकत्वमोहनीय और मिनमोहनीय...-इन पाँच प्रतियों के बिना मियाद गस्थान में ११३, सुक्ष्मविक, आतप और मिन्याय इन पाँध प्रकसियों के सिवाय मास्वादन में १५८, उनमें से अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्थावर नाम और जाति चतुष्क - इन नौ प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनीय को मिलाने पर मित्र मुणस्थान में

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