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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
उदोरणास्वामित्व उदय-समय से लेकर एक आवलिका तक के काल को उदयावसिका कहते हैं । उदयावलिका में प्रविष्ट कर्मपुगल को कोई भी करण लागू नहीं पड़ता है । उदपावलिका के बाहर रहे हुए कर्म पुदगल को उदयालिका के कर्मपदाल के साथ मिलाकर भोगने को उदीरणा कहते हैं । जिस आति के कर्मों का उदय हो, जसी जाति के कर्मों की उदीरणा होती है। इसलिए सामान्य रीति से जिस मागंणा में जिस गुणस्थान में जितनी कर्मप्रकृत्तियों का उदय होता है, उस मागंणा में उस गुणस्थान में उत्तनी प्रकृतियों की उधीरणा भी होती है। परन्तु इतना विशेष है कि जिम प्रकृति को भोगते हुए उसकी माला में मान एया आवलिका काल में भोगने योग्य कर्मपद्गल शेष रहे, तब उसकी जदौरगा नहीं होती है, अश्रत उदयाव स्मिक्का में प्रविष्ट कर्म उदीरणायोग्य नहीं रहता तथा शरीरपर्याप्त पूर्ण होने के बाद जब सक इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण न हो, तब तवा पाँच निद्रानों की उदीरणा नहीं होती, उदय रहता है। छठे गुणस्थान से आने मनुष्यायु, साता और असाता वेदनीय कर्म की तयोग्य अध्यवसाय के अभाव में दीरणा नहीं होती है, उषय ही होता है तथा चौदहवें गुणस्थान में योग के अभाव में किसी भी प्रकृति की उदीरणा नहीं होती है, सिर्फ उदय ही होला है।
ससास्वामित्व जूदग-जी रया-स्वामिन के अनन्तर ६२ उत्तर-मार्गणाओं में प्रकृतियों की सत्ता का काथन करते हैं । सत्ताधिकार में १४८ प्रकृतियाँ विवक्षित है।
मरपति और वेव गति- इन दोनों मार्गणाओं में एक दूसरे के वायु और नरमायु के सिवाय ११७ प्रकृतियों की सत्ता होती है । क्योंकि नरकगति में देवायु की और देवगति में सरकार की सस्ता नहीं होती है । मिथ्यात्व गुणस्थान में देवमति में जितनाग की ससा नहीं होती है, परन्तु मरकगति में होती है. इसलिए देवगति में मिथ्यात्व गुणस्थान में १४६ और नरकगति में १४७ प्रकृत्तियों की सत्ता होती है । दूसरे और तीसरे गुणस्थान में जिननाम के सिय १४६ प्रकृतियों की सत्ता होती. है । अविरत मुणस्थान में क्षायिक