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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट सम्यक्त्यमोहनीय को मिलाने से १०१ प्रकृतियाँ अविरत गुणस्थान में होती हैं। अनमें से अप्रत्याख्यानावरणचतुष्क, आनुपूर्वीत्रिक, देवगति, देवायु, बैंक्रियादिक, दुभंग, अनादेय और अयश-~-इन चौदह प्रकृतियों के बिना देशविरत गुणस्थान में ७, प्रमस में ८१ और अनमत में ७६ प्रकृतियाँ होती है। __ शुक्लालेश्या- इसमें तेरह गुणस्थान । स्थावरचतुष्क, जातिवतृषक, नरकत्रिक और आतप नाम - इन १२ प्रकृतियों के बिना सामान्य से ११० प्रकृतियाँ होती हैं। आहारकतिक, सम्यक्स्व, मिथ और जिननाम इन पाँच प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में १०५ प्रकृतियां होती हैं 1 मिश्यारस के बिना सास्वादन मैं १०४, उनमें से अनन्सानुबन्धीचतुष्क और आनुपूर्वीविक को कम करके मित्रमोहनीय को मिलाने से मित्र गुणस्थान में ६८, अविरत गुणस्थान में १०१ और देशविरति में ८७ प्रकृतियाँ होती हैं। आगे के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए।
भव्य ... यहाँ चौदह गुणस्थान होते हैं और उनमें सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए।
अभव्य- इसमें सिर्फ पहला गुणस्थान होता है । सम्यक्त्व, मिश्र. जिननाम और आहारकनिका - इन पांच प्रकृतियों के बिना सामान्य से और मिथ्यात्व मुणस्थान में ११७ प्रकृतियां होती है।
उपशम सम्यकथ... स मार्गणा में चौथे से लेकर ग्यारहवें तक आठ गुणस्थान होते है । ज्यावरचलुव. जातिचतुष्क, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व. मोहनोय, मिश्रमोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीय, जिननाम, आहारकविक, आतप. नाम और आनुपूर्वीचतुक...इन तेईम प्रकृतिमों के बिना मामान्य से और अविरत गुणस्थान में ६६ प्रकृतियां होती है। अन्य आचार्य के मत से उपशम सम्यग्दृष्टि आयु पूर्ण होने से मरकर अनुत्तर देवलोक तक उत्पन्न होता है, तो उस समय उसे अविरत गुणस्थान में देवानुपूर्वी का उदय होता है, इस अपेक्षा सामान्य से और अविरत गुणस्थान में १०० प्रकृतियां होती है। अप्रत्माख्यानाने रणचतुष्क, देवगति, देवानुपूर्वी, देवाय, नरकगति, मरकायु, वैक्रियद्धिक, दुभंग, अनादेय और अयश-न १४ प्रकृतियों के बिना देश