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तृतीय कर्मनन्ध : परिशिष्ट सम्यकाव और मिश्र मोहनीय ---इन दो प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व में ११७, सुमत्रिक, पातप, मिथ्यात्व और नरकानुपूर्वी --- इन छह प्रकृतियों के बिना सास्वादन में १११, अनन्तानुबन्धीनतुष्क. स्थावर, जातिचतुष्क और अन्नपूर्वी त्रिक- इन बारह प्रकृतियों को कम करने और मिश्र मोहनीय को मिलाने पर मिथ गुणस्थान में १.० प्रकृतियां होती हैं, उनमें आनुपूर्वोचतुटक और सम्यक्त्वमोहनीय-इन पांच प्रकृतियों को मिलाने और मिश्रमोहनीय की कम करने पर अविरत गुणस्थान में १०४ प्रकृतियाँ उदय में होती हैं ।
चक्षवर्शन—यहीं बारह गुणस्थान होते हैं। जातिषिक, स्थावरचतुष्क, जिननाम, आसप, आनुपूर्वीचतुष्क----इन तेरह प्रकृतियों के बिना सामान्य मे १.६. आहारकलिका, सम्यक्त्व और मिश्र-इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्यात्व गुणस्थान में १०५, मिथ्यात्व के बिना सास्वादन में १०४, अनन्तानुबन्धीचतुष्क और. जगन्द्रिय मालि-..इन्पन सय ६, जि। और मिधमोहनीय को मिलाने पर मित्र गुणस्थान में १०२ तथा अविरतसम्यगदुटि में १००, देशविरत आदि गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए। ____ अमक्षुदर्शन----इम मार्गणा में भी बारह गुणस्थान होते हैं । इसमें जिननाम के बिना मामान्य से १२१, आहारकद्रिक, सम्यक्त्य और मित्र-इन चार प्रकृतियों के बिना मिथ्यास्य गुणस्थान में ११५ प्रतियां होती हैं । शेष मुणस्थानों में क्रमश: १११,१७०, १०४, ५, ८१, ६, ७२, ६६, ६०, ५६ और ५७ का उदयस्वामित्व समझना चाहिए ।
अवधिदर्शन -- यहाँ चौथे से लेकर बारहवें गुणस्थान तकनी गुणस्थान होते हैं। सिद्धान्त के मतानुसार विभंगशानी को भी अनिदर्शन कहा है। अताव उनके मन में आवि के हीन गुणस्थान भी होते हैं। परन्तु कामग्रन्थ के मत में विभंगमानी को अवनिदान नहीं होता है। असगर्व अवधिज्ञानी के समान सामान्य से १०६ व अविरत गुणस्थान में १०४ प्रकृतियां होती हैं । आगे के गुणस्थानों में सामान्य उदयस्वामित्व समझना चाहिए ।
केवलदर्शन ..यहाँ अन्तिम दो गुणस्थान होते हैं और उनमें ४२ तथा १२ प्रकृतियों का अनुक्रम से उदय' समझना चाहिए।