________________
रासस
mmmmarwarermveveo0000000TTERVISHAwereorompOTO
मार्गणामों में सबय-उवीरमा-सत्ता-स्वामित्व
प्रकृतियों, सास्थायन में मिथ्यात्व और नरकानुपूर्वी के बिना १०४ प्रकृतियाँ, अनन्तानुवन्धीभाष्क और देशानुपूर्वी को कम करने और मिश्र मोहनीय को मिलाने पर मिन गुणस्थान में १०० प्रकृतियाँ उदय में होती हैं।
सामाथिक और छेदोपस्थापनीय संयम-इन दोनों धारिमों में प्रमत्त से नेकर चार गुणस्थान होते हैं। उनमें ८१.७६, ७२ और ६६ प्रकृतियों का कमशः उपयस्वामित्व समझना चाहिए ।
परिहारविशशि--यहाँ छठा और सातवाँ ये दो गुणस्थान होते हैं । उनमें पूर्वोक्त ८१ प्रकृतियों में से आहारकतिक, स्त्रीवेद, प्रथम संहनन के सिवाय शेष पौध संहनन... इन आठ प्रकृत्तियों के बिना सामान्य से और प्रमत में ७३ प्रकृतियां होती है। परिहारविशुद्धि चारित्र वाला चतुर्दश पूर्वघर नहीं होता है तथा स्त्री को परिहारविधि पारित नहीं होता है और वजऋषभनाराच संहनन वाले को ही परिहारविमुद्धि चारित्र होता है, अमीलिए यहाँ पूर्वोत आठ प्रकृतियों के उदय का निषेध किया है। सस्थानाचत्रि के सिवान अप्रमाद गुणस्तान में प्रकृति में है ।'
सूक्ष्मसंपराय-यहाँ मि दसयाँ मूक्ष्मसंपराव गुणस्थान ही होता है ! सामान्यतः यहाँ ६० प्रकृतियों का उदय ममाना चाहिए।
यथासबात—यहाँ अन्त के ११, १२, १३ और १४ ये कार गुणस्थान होते हैं। उनमें उपशान्त मोह में ५६, ऋषभनारव और मागच इन दो संहनन के सिवाय सीण गोह में विचरम समय में ५७, निद्रादि के हिना अन्तिम समय में ५५, मबोगिकोवाली गुणस्थान में ४२ और अयोगिनती गुणस्थान मैं १२ प्रकृसियों का उदय होता है।
देशविरत—यहाँ पाँच एक हो गुणस्थान होता है और उसमें मामान्य से प्रकृत्तियों का उदय जानना चाहिए।
अविरत इस मार्गणा में प्रथम चार गुगणस्थान होते हैं। इसमें जिननाम और आहारमाबिक इन तीन प्रवलियों के सिवाय सामान्य से ११६,
१ दिगम्बराचार्यों ने ७७ प्रकृतियां उदययोग्य मानी है और nd. सासवें गुणस्थान में क्रमश: ७७, ७४ प्रकृतियों का उदय कहा है।