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शुश काल : बि.
सिप
प्रकृलियां उदययोग्य हैं । उक्त २३ प्रकृतियों में से प्रत्याख्यानावरणपतुक का उदयविच्छेद पत्रिवें गुणस्थान में हो आने से छठे प्रमसबिरत गुणस्थान में ७६ प्रकृतियों उदययोग्य हैं, लेकिन आहारकद्विक का उपय छठे गुणस्थान में होता है अत: इन दो प्रकृतियों को मिलाने से ६१ प्रकृतियों का उदय माना
रुवानचित्रिक और आहारकद्धिक-इन पांच प्रकृत्तियों के सियाय अप्रमत मुणस्थान में ७६ प्रकृलियां होती हैं। सम्यक्त्वमोहनीय और अंतिम तीन संहनन इन दार प्रकृतियों को कम करने पर अपूर्वकरण में ७२ प्रकृतियां उदय में होती हैं । हास्यादिषट्क के सिवाय अनिश्रृप्ति गुणस्थान में ६६ प्रकृतिमा उदय में होती हैं । वेदमिक और संज्वलनत्रिक इन छह प्रकृतियों के अलाना सूक्ष्मसंपराय गुणस्थान में ६० प्रकृतियां उदय में होती हैं। संज्वलन लो के बिना उपशांतमाह गुणस्थान में ५६ प्रकृतियां होती हैं। ऋषभनाराच और नारान इन दो प्रकृतियों के सिवाय क्षीणमोह गुणस्थान के द्विचरम समय में ५७ प्रकृतियाँ और निद्रा, प्रचसा के सिवाय क्षीणमोह के अंतिम समय में '५५ प्रकृतियाँ सोती हैं। ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ४ और अन्तराम ५... इन बौदह प्रकृतियों में उदयविद होने तथा तीर्थंकर नामकर्म उदययोग्य होने से सयोगिकेवली गुणस्थाम' में ४२ प्रकृतियों होती हैं। औदारिफट्रिक. बिहायोगसिद्धिक, अस्थिर. अशुभ, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, मंस्थानषट्क. अगुरुलअनलष्क, वर्णचनुम्क. निर्माण जस, कार्मण, वन
भनारसत्र संहनन, दुःस्वर, सुरुवर, सातावेदनीय और असातावदनीय में मे कोई एक-इन ३॥ प्रकृसियों के बिना अयोगिकंवली गुणस्थान में १२ प्रकृतियों का उदय होता है। सुभग, आदेश, यश-कोति, साता या असाता वेदनीय में से कोई एक, प्रस, बादर, पर्याप्त, पंचेन्द्रिय जाति, मनुष्यतिक, जिननाम और उश्च गोत्र में १२ प्रकृतियो भयोगिकेवली गुणस्थान के अन्तिम समय उदय बिच्छन्न होती हैं।
घेषगति-इस मार्गणा में प्रथा चार गुणस्थान होते हैं । नरकनिक तिर्यंचत्रिक, मनुष्यषिक, जातिचतुष्क, औदारिकद्विक, आहारकद्धिक, संहननषदक, यग्रोधपरिमण्डलादि पांच संस्थान, अशुभ विहामोगति, भातय,