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तृतीय कर्मग्रन्थ : परिशिष्ट
वाले मनुष्य, लियंच, बैंक्रिय शरीर वाले, आहारक शरीर काले और अनमल साधु के सिवाय शेष अन्य के स्स्थानचिन्त्रिक का उदय और वारणा होतो
__ सामान्य से उदयवती ७६ प्रकृतियों में से सम्यक्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय को कम करने पर मिथ्यात्व गुणास्थान में ६८ प्रकृनियो तथा नरकानुपूर्वी और मिथ्यात्वमोहनीव के सिवाय ७२ प्रकृतियां सास्वादन गुणस्थान में उदार नोग्य हैं, उनमें से अगम्लानुवन्धी चतुष्का को कम करने और मित्रमोहनी को जोड़ने पर मिश्रगुणस्थान में ६६ प्रकृतियों और उनमें से मिश्रमोहनीय को कम करने और सभ्यकरन मोहनीय तथा नरकानुपूर्वी का प्रक्षेप करने से अविरलसम्यष्टि गुणस्थान में ७० प्रकृलियाँ उदय में होती हैं ।
तिबंधगति-.'इस मार्गणा में पनि गुणस्थान होसे हैं । इसमें देवतिक, नरकविक, वैक्रियतिका. आहारकाद्विक, मनुष्यमिक, उच्च गोत्र और जिननाम-इन पन्द्रह प्रकृतियों का उदय नहीं होता है। इसलिए उदययोग्य १२२ प्रकृतियों में से पन्द्रह प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से १०७ प्रचालियाँ उदय में होती हैं। तियंत्रों के भवधारणीय वैक्रिय शरीर नहीं होता है. किन्तु लब्धिप्रत्यय .वैक्रिय शरीर होता है, अत: उसकी अपेक्षा से वैरिद्विक को साथ जोहने पर १.६ प्रकृतियाँ उदय में मानी जा सकती है लेकिन सामान्य मे १०.७ प्रकलियां सदययोग्य मानी जाती हैं। पूर्वोक्त १०७ प्रकृतियों में से सम्यक और मित्र मोहनीय..... इन दो प्रकृतियों को कम करने से मिथ्यात्व गुणस्थान में १०५ प्रकृतिया, सक्षम, अपर्याप्त, साधारण, आतपनाम और मिथ्यात्वमोहनी-~-न पाँच प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्थान में १०० प्रकृलियाँ जदययोग्य होती हैं, उनमें से अनन्तानुवन्धीचतुश्क,
१ (क)-देखें कर्मप्रकृति उदीर.पााकरण गाथा १९.'संम्परत वर्ष की आयु
वाले कर्मभूमिज मनुष्य और लियंच के इन्द्रियपर्याप्ति पूर्ण होने के बाद स्त्यानदिनिका जपय में आने योथ्य है, उसमें आहारकलब्धि तथा वैशियलब्धि वाले को उसका उदय नहीं होता है। (ब)-धीणतिगुरुओ परे, सिरिये 1 ।
-नो कर्मकाय २५