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KirtamAlANKavryayv४:१५:57..
मार्गणाओं में उदय-उदीरणा-सत्ता-स्वामित्व
तीसरे कर्मग्रन्थ में सामान्य और गुणस्थानों के माध्यम से मागाओं में बन्धस्वामित्व का कथन है किन्तु उदय, उदीरशा, सत्ता के स्वामित्य का विधार नहीं किया गया है । लेकिन उपयोगिता की दृष्टि से संक्षेप में उनका विवेचन आवश्यक प्रतीत होना है । अत: उनसे सम्बन्धित स्पष्टीकरण किया जाता है।
उदयस्वामित्व
मरगति- इस मार्गणा में मिथ्यात्व से लेकर अविरतसमष्टि मुणस्थान पर्यन्त चार गुणस्थान होते हैं। सामान्यतया उदययोग्य १२२ प्रकृतियां हैं, उनमें से ज्ञानावरण गर, दर्शनावरण चार, अंतराय पाँच, मिथ्यात्वमोहनीय, जसनाम, कार्मणनाम. वर्णपण, अनुरुलधु नाम, निर्माणनाम, स्थिरनाम, अस्थिरनाम, शुभनाम और अशुभनाम में सलावीस प्रकृतियाँ ध्रु बोबधी – अपनी-अपनी उदय भूमिका पयः अवश्य उदयवती होती हैं। उनमें मिथ्यात्वमोहनीय की उदयभूमि प्रथर गुपस्थान है और वहाँ वह ध्रुवोययी है। पांच झातावरणीय, चार दातावरणीय और पांच अन्तराय इन चौदह प्रकृतिमों का उदय बारहवें गुणस्थान लक और शेष बारह प्रकृतियों का उदय ले रहवं गुणस्थान सक सभी जीवों के होने से वेध बोल्यो है । ये सत्तावीस धूवोदयी प्रकृतियों तथा निद्रा प्रपला, वेदनीय विक, नीच गोत्र. नरकत्रिक. पत्तेन्द्रिय जाति, वैशियतिक, हुण्डसंस्थान, अशुभविहायोगति, पराधात, उच्छवासनाम, उपघात, मचतुष्क, दुर्भग, इस्वर, अनादेश , अयश, सोलह कषाय. हास्यादिषट्क, नपा वेद. सम्ममत्वमोहनीय और मिश्र मोहनीय ये ७६ प्रकृतियाँ सामागम से नारकों के उदय में होती हैं । उनमें से पंचसंग्रह और कर्मप्रकृति के मत से सत्यानर्वित्रिक का उदय क्रिय भारीरी देव और नारकों के नहीं होता है । कहा है कि असंख्य वर्ष की आयु