Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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मार्गणाओं में उदय उदीरणा-सा स्थामित्व
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उद्योत जिननाम स्थावरचतुष्क दुःस्वर, नपुंसक वेद, नीच गोत्र और terrafafter ४२ प्रकृतियों के सिवाय ओष से देवों के ८० प्रकृतियों उदय में होती हैं । यहाँ उपकिय परीष करने को देवों के शोध नामकर्म का उदय संभव है. परन्तु भवप्रत्यय शरीर निमित्तक उद्योत का उदय विवक्षित होने से दोष नहीं है। मिथ्यात्व गुणस्थान में मिश्र व सम्यक्त्व मोहमीव का अनुषय होने से ७८ प्रकृतियाँ उदयोग्य है | free का बिछे हो जाने से सास्वादन में ७७ प्रकृतियाँ, अनन्तानुबन्धचतुष्क और देवानुपूर्वी
-इन पांच प्रकृतियों को कम करने और मिश्रमोहनी को मिलाने पर मिश्र गुणस्थान में ७३ प्रकृतियाँ, मिश्रमोहनीय को कम करने तथा सम्यक्त्व मोहनीय और देवापुर्वी इनसे प्रकृतियों को जोड़ने पर अविरतसम्पण्डष्टि गुणस्थान में ७४ प्रकृतियाँ उदययोग्य है।"
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एकेन्द्रिय जाति- एकेन्द्रिय मार्गणा में आदि के दो गुणस्थान होते हैं वैष्टक, मनुष्यधिक उच्चगोत्र स्त्रीवेद, पुरुषवेद, द्वीन्द्रियजातिचतुष्क, आहारकक्षिक, औदारिक अंगोपांग आदि के पाँच संस्थान, बिहागतिक जिननाम, बस, छह संहनन, दुःस्वर, सुस्वर, सम्यक्त्वमोहनीय, मिश्रमोट नीय, सुभगनाम आदेयताम इन ४२ प्रकृतियों के बिना सामान्यतः और मिध्यात्व गुणस्थान में ८० प्रकृतियों होती हैं और क्रिय शरीर
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नाम का उदय होने से एकेन्द्रिय मार्गणा में १ प्रकृतियों में होती हैं। सूक्ष्मत्रिक aayनाम, उद्योतमाम मिथ्यात्वमोहनीय, गधातनाम और श्वासोच्छ्वासनाम- इन आठ प्रकृतियों के सिवाय सास्वादन गुणस्थान में ७२ प्रकृतियों उदय में होती है। क्योंकि सास्वादन गुणस्थान एकेन्द्रिय पृथ्वी, अ और वनस्पति को अपर्याप्त अवस्था में भारीपर्याप्त पूर्ण होने के पहले होता है और आतपनाम, उद्योतनाम, परावातनाम और उच्छ्वास का अदभ
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१ गो० कर्मकांड में दुभंग, अनादेय और अयशःकीति नवीन प्रकृतियों को देवगति में उदयोग्य नहीं माना है । अतः प्रकृतियों सामान्य से उदयोग्य हैं। अतः नारों गुणस्थानों में श्रमशः ७५ ७४, 20 और ७१ प्रकृतियों का उय होता है।
-गो कर्मकांड ३०४
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