Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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अंधत्वादस्य
प्रकृतियों का और पहले गुणस्थान में १०७, दूसरे में २४, चोथे में ७५. और तेरहवें में १ प्रकृति का स्वामित्व समझना चाहिए ।
अनाहारक मार्गणा में ओ सामान्य आदि की अपेक्षा बन्ध स्वामित्व बतलाया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार हैं बन्धयोग्य १२० प्रकृतियों में से आधारकत्रिक देवायु, नरकषिक, मनुष्यायु, तिचा इन आठ प्रकृतियों को कम करने पर सामान्य से ११२ तथा इनमें से जिननाम देवनिक तथा चैकियद्रिक इन पाँच प्रकृतियों को कम करने से पहले गुणस्थान में १०७ प्रकृतियों का और इन १०७ प्रकृतियों में से सुक्ष्मत्रिक, विक्लत्रिक. एकेन्द्रियजाति स्थावरनाम, आलपनाम. नपुसकवेद मिथ्यात्वमोहनीय. हुंड संस्थान और सेवा संहनन न तेरह प्रकृतियों के कम करने पर दूसरे सास्वादन गुणस्थान में ३४ प्रकृतियों का तथा इनमें से अन न्तानुबन्धचतुष्क आदि चौबीस प्रकृतियों को कम करने तथा free प्रकृतियों को मिलाने पर चौथे गुणस्थान में ७५ प्रकृतियों का तथा योगकेवल गुणस्थान में एक सातावेदनीय प्रकृति का बन्ध होता है ।
सारांश यह है कि भव्य और अंशी इन दो मार्गणाओं में वह ही स्थान होते हैं. अतः इनका सामान्य से और गुणस्थानों की अपेक्षा aafna Fatधिकार में बस गये अनुसार समझना चाहिए ।
अतः मका
अभव्य पहले ही गुणस्थान में अवस्थित रहते बन्धस्वामित्व सामान्य एवं गुणस्थान की अपेक्षा पहले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का है ।
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असं जीवों के पहला और दूसरा, ये दो गुणस्थान होते हैं और इनमें तीर्थङ्कर नामकर्म और आहारकविक इन तीन प्रकृतियों का बन्ध होना संभव नहीं है, अतः सामान्य गे और पहले गुणस्थान में ११७ प्रकृतियों का और दूसरे में बन्धाधिकार के समान १०१ प्रकृतियों का बन्ध होता है ।
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