Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
View full book text
________________
है ६
स्थान में १०१ आदि बन्धाधिकार के समान समझना चाहिए । सामान्य और गुणस्थानों में बन्ध का वर्णन दूसरे कर्मग्रन्थ में विद रूप से किया गया है, अतः यहां पुनरावृत्ति नहीं की गई है ।
द्रव्यमन के बिना भावमन नहीं होता है जैसे कि असंज्ञी | केवली भगवान के भावमन के बिना भी द्रव्यमन होता है, ऐसा सिद्धान्त में बताया गया है ।' अर्थात् केवली भगवान के मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमजन्य मनन परिणाम रूप भावमन नहीं हैं, परन्तु अनुत्तर विमान के देवों के द्वारा पूछे गये प्रश्नों के उत्तर द्रव्यमन से देते हैं । इसलिए के बिना होता है और नह मन चौदह गुणस्थान तक होता है। सिद्धान्त में उसे नोज्ञीनोअसंज्ञी कहा है। यहाँ संज्ञीमार्गणा में द्रव्यमन की अपेक्षा संज्ञी मानकर चौदह गुणस्थान बतलाये गये हैं ।
अभव्य जीवों के पहला मित्रयात्व गुणस्थान ही होता है और सम्यक्त्व एवं चारित्र को प्राप्ति न होने के कारण तीर्थङ्कुरनामकर्म तथा आहारकद्विकका बन्ध संभव हो नहीं है । इसलिए सामान्य से तथा पहले गुणस्थान में तीर्थरामकर्म, आहारefere इन तीन प्रकृतियों को छोड़कर सामान्य व गुणस्थान को अपेक्षा अभव्यजीव ११७ प्रकृतियों के बन्ध के अधिकारी हैं।
स्वाम
अशी जीवों के पहला और दूसरा यह दो गुणस्थान होते हैं । इनके सामान्य से और पहले मिथ्यात्व गुणस्थान में तीर्थरामक और आहारकfe का बन्ध नहीं होने से तीन प्रकृतियों को छोड़कर ११७ प्रकृतियों का बन्ध होता है। दूसरे गुणस्थान में संज्ञी जीवों के समान वे १०१ प्रकृतियों के बन्धाधिकारी हैं ।
अनाहारक मार्गणा में कार्मण काययोग मार्गणा के समान aavarfree antar चाहिए | यह मार्गणा पहले, दूसरे चौथे.
wwwwwwww.
after faar वचित' न स्वसंनियत् । विनाऽपि माचिस तु द्रव्यं केवलिनो भवेत् ॥