Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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पन्यमानित
प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और मिथ्यात्व गुगुणस्थान में तीर्थकरप्रकृति का बन्ध न होने से ११७ प्रकृतियों का तथा दूसरे, तीसरे और चौथे गुणस्थान में बन्धस्वामित्व के समान ही बन्ध समाना चाहिए।
चौथे गुणस्थान के समय इन कृष्णादि तीन लेश्याओं में ७७ प्रकृतियों का बन्ध माना है, उसमें देवायु का भी ग्रहण है, जो कर्मअन्धकारों की दृष्टि से ठीक है । लेकिन भगवती सूत्र में बताया है कि कृष्णादि तीन लेश्यावाले सम्यक्त्वी मनुष्यायु को बांध सकते हैं, अन्य आयु को नहीं। इस प्रकार ७६ प्रकृतियों का बन्ध माना जाता चाहिए । इस विरोध का परिहार करने का सरल उपाय यह है कि कृष्णादि तीन लेश्या वाले सम्यक्तियों के प्रकृतिबन्ध में जो देवायु की गणना की गई है, वह कर्मग्रन्धकारों के मतानुसार है, संद्धान्तिक मत के अनुसार नहीं।
तेजोलेश्या पहले सात गुणस्थान में पाई जाती है और इस लेण्या वाले नरकनवक का बन्ध नहीं करने से सामान्य से १११ प्रकृतियों का बन्ध करते हैं और पहले गुणस्थान में तीर्थकरनामकर्म और आहारकद्विक के सिवाय १०८ और दूसरे से सातवें तक प्रत्येक गुणस्थान में बन्धाधिकार के समान बन्धस्वामित्व समझना चाहिए।
पदमलेश्या में भी तेजोलेश्या के समान ही सात गुणस्थान होते हैं । लेकिन तेजोलेश्या से इसमें विशेषता यह है कि पद्मलेश्या वाले नरकनवक के अतिरिक्त एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप इन तीन प्रकृतियों को भी नहीं बांधते हैं । अतएव पालेश्या का बन्धस्वामित्व मामान्य रूप से १०८ प्रकृतियों का तथा पहले गुणस्थान में तीर्थंकर नामकर्म तथा आहारकचिक को घटाने से १०५ का और दूसरे में लेकर सातवें गुणस्थान तक प्रत्येक में बन्धाधिकार के समान ही बन्छ समझाना चाहिए।
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