Book Title: Karmagrantha Part 3
Author(s): Devendrasuri, Shreechand Surana, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Marudharkesari Sahitya Prakashan Samiti Jodhpur
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तृतीय कांग्रन्थ
दिगम्बर मतानुसार लान्तय (लान्तक) देवलोक में पालेश्या ही है।' अतएव उक्त दिगम्बरीय सिद्धान्तानुसार यह कहा जा सकता है कि सहस्रारकल्पपर्यन्त के बन्धस्वामित्व में उद्योतचतुष्क की जो गणना की गई है, सो पद्मलेश्या वालों की अपेक्षा से है, शुक्ललेश्या वालों की अपेक्षा से नहीं । लेकिन तत्त्वार्थ भाष्य, संग्रहणी आदि ग्रन्थों में देवलोकों की लेश्या के विषय में किये गये उल्लेखानुसार उक्त विरोध का परिहार नहीं होता है। यद्यपि इस विरोध का परिहार करने के लिए श्री जीवविजयजी ने अपने टबे में कुछ नहीं लिखा है, लेकिन धी जरासोमसूरि ने इसका समाधान करते हुए लिखा है कि यह मानना चाहिए कि नौवें आदि देवलोकों में ही शुक्ललेण्या है।' इस कथन के अनुसार छठे आदि तीन देवलोकों में पद्म-शुक्ल दो लेण्याएँ और नौवें आदि देवलोकों में केवल शक्ललेश्या मान लेने से उक्त विरोध का परिहार हो जाता है।
लेकिन इस पर प्रश्न होता है कि तत्त्वार्थभाष्य और संग्रहणी सूत्र में छठे, सातवें और आठवें देवलोक में शक्ललेश का भी उल्लेख क्यों किया गया है ? इसका समाधान यह है कि तत्वार्थभाष्य और संग्रहणी सूत्र में जो कथन है वह बहुलता की अपेक्षा से है । अर्थात् छठे आदि तीन देवलोकों में शुक्ललेश्या की बहुलता है और इसीलिए उनमें पद्मलेश्या संभव होने पर भी उसका कथन नहीं किया गया है। अर्थात शुक्ललेश्या वालों के जो अन्धस्वामित्व कहा गया है, वह विशुद्ध शुक्ललेश्या की अपेक्षा से है। - इस प्रकार तत्वार्थभाग्य और संग्रहणीसूत्र की व्याख्या को उदार बनाकर विरोध का परिहार कर लेना चाहिए।
सारांश यह है कि कृष्णादि लेश्याओं में कृष्ण, नील, कापोल इन तीन लेश्यावाले आहारकट्रिक को छोड़कर सामान्य से ११८
२ ब्रह्मलोकनहोस्सरलान्तवकापिटेषु एन लेण्या शुत्रमहाशुक्रालारसहसारेषु गरपानलेश्याः ।
--- पूत्र, ४।२२ सर्वार्थसिधि टीका